बृन्दावन प्रेम माधुरी हृदयस्पर्शी मधुर भक्ति कथाएं
बृन्दावन प्रेम माधुरी हृदयस्पर्शी मधुर भक्ति कथाएं
*गोपाल की कृपा*
रूप गोस्वामी के साथ इससे पूर्व घटी एक और घटना से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उनकी वासना की पूर्ति के लिए स्वयं उनके इष्ट को कष्ट करना पड़ता। चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि एक बार उनके मन में वासना जागी गोपाल (श्रीनाथजी) के दर्शन करने की। गोपाल का मन्दिर गोवर्धन पर्वत के ऊपर था। गोवर्धन पर्वत पर रूप गोस्वामी चढ़ते नहीं थे, क्योंकि वे उसे साक्षात श्रीकृष्ण का विग्रह मानते थे। ऐसी स्थिति में उनकी वासना पूरी करने के लिए गोपाल को स्वयं उनके निकट आना पड़ा। उन्होंने कुछ ऐसी माया फैलायी, जिससे उनके भक्तों को उनके मन्दिर पर म्लेक्षों के आक्रमण का भय हो गया। वे उन्हें मथुरा ले गये। वहाँ विट्ठलेश्वर के घर गोपाल ने एक महीने उनकी सेवा स्वीकार की। उस बीच रूप गोस्वामी ने गोपालभट्ट भूगर्भ गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि अपने निज जनों के साथ मथुरा में रहकर एक मास तक उनके दर्शन किये-
*तबे रूप गोसाञी सब निजजन लञा।*
*एकमास दर्शन कैला मथुराय रहिया॥*
गम्भीर आशय
रूप गोस्वामी का आशय इतना था और सात्विक-भावों को भीतर समा लेने की उनमें ऐसी अद्भुत शक्ति थी कि बाहर से देखकर उनके भाव की गम्भीरता का अनुमान करना कठिन होता। एक बार एक समाज में भगवान के रूप-गुणादि का सुन्दर कीर्तन हो रहा था। उसके अलौकिक प्रभाव से भक्तगण इतना अभिभावित हुए कि सात्विक-भावों के वेग को न रोक सकने के कारण वे मूर्च्छित होने लगे। पर रूप गोस्वामी धीर-गम्भीर ऐसे खड़े रहे, जैसे उन्हें भाव ने स्पर्श भी नहीं कियां उसी समय कवि कर्णपूर उस समाज में जा पहुँचे। उन्होंने रूप गोस्वामी को निकट से देखां। उन्हें लगा जैसे उनकी श्वास में से आग की लपटें निकल रही हैं। प्रियादास जी ने भक्तमाल की भक्तिरस बोधिनी टीका में इस घटना का इस प्रकार वर्णन किया है-
रूप-गुणगान होत, कान सुनि सभा सब, अति अकुलाने
प्रान मूर्छा सी आई है।
बड़े आप धीरे रहे ठाढ़े, न शरीर सुधि, बुधि मैं
न आवै ऐसी बात लै दिखाई है॥
श्रीगुसाई कर्णपूर पाछे आये देखे आछे, नेकु ढिग गये।
स्वास लाग्यौ तब पाई है।
मानों आगि आंच लागी, ऐसो तन चिह्न भयौ
नयौ यह प्रेम रीति कापै जात गाई है॥
*प्रेम प्राप्ति के स्तर*
किस प्रकार प्रेम का क्रमश: उदय होता है, इसकी भी रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृतसिन्धु में चमत्कारिक मनोवैज्ञानिक व्याख्या की है। प्रेम-प्राप्ति के पूर्व साधक को जिन आठ स्तरों को पार करना होता है, वे हैं श्रद्धा, साधु-संग, भजन क्रिया, अनर्थ-निवृत्ति, निष्ठा, रूचि, आसक्ति, भाव या रति।*
*श्रद्धा*
श्रद्धा है भक्ति का बीज-स्वरूप। श्रद्धा का प्राण है उत्साह। रूपगोस्वामी ने ज्ञान विषय में निष्ठा युक्त व्याकुलतामय आसक्ति को उत्साह कहा है।* इसका अर्थ यह है कि श्रद्धा कार्यरूप में परिणत हो और साधक को परमार्थ विषय की जानकारी प्राप्त करने के लिये व्यग्र कर दे, तभी समझना चाहिये कि उसमें सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई है, अन्यथा नहीं। जीव गोस्वामी ने भक्ति-सन्दर्भ में लिखा है कि जिस प्रकार रासायनिक प्रक्रिया से सोना तैयार करने में लगे लोग अपनी चेष्ठा को थोड़ा भी विराम नहीं देते, उसी प्रकार श्रद्धा उत्पन्न होने पर साधक अपने प्रयत्न में निरन्तर लगा रहता है।
*साधु-संग*
हृदय में श्रद्धा जागने पर साधु-संग की इच्छा होती है। यथार्थ साधु-संग उसे कहते हैं, जिसमें साधक महापुरुषों के गुणों को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करता है और उनके उपदेशानुसार आचरण करने की चेष्टा करता है। साधु-संग का अर्थ श्रवण और मनन है। गुरुपदाश्रय साधु-संग का मुख्य अंग है।
*भजनक्रिया*
भजन क्रिया का अर्थ है श्रवण-कीर्तनादि भजन-क्रियाओं में दृढ़तां।
*अनर्थ-निवृत्ति*
भजन क्रिया दृढ़तापूर्वक सम्पादित होने से अनर्थ निवृत्ति होती है, अर्थात् श्रीकृष्ण-सेवा की कामना छोड़ और सब प्रकार की कामनाओं का नाश हो जाता है।[2] इस स्तर पर प्रारब्ध कर्म का नाश हो जाता है।
*निष्ठा*
अनर्थ निवृत्ति के बाद भक्ति में नैश्चल्य और दृढ़ता उत्पन्न होती है। इसी को निष्ठा कहते हैं। निष्ठा जन्मने पर साधक काय, मन और वाक्य से प्रभु की सेवा करता है और लीलादि का स्मरण करता है। निष्ठा युक्त व्यक्ति मैत्री, दया, शम, दम, तितिक्षा, दैन्य आदि गुण सहज ही प्राप्त कर लेता है।
*रूचि*
निष्ठा से रूचि उत्पन्न होती है। रूचि की अवस्था में श्रवण-कीर्तनादि भक्ति के अंगों का बार-बार अनुशीलन करने से भी अरूचि या श्रम नहीं होता। उनका जितना अधिक अनुशीलन होता है, उतनी ही रूचि और बढ़ती है। जिस साधक में रूचि का उदय होता है वह कीर्तन के ताल, लय आदि की अपेक्षा नहीं रखता। भगवान के नाम या लीला का कीर्तन जैसा भी हो उसे सुनकर वह उल्लसित होता है।
*आसक्ति*
रूचि से आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति की अवस्था में चित्त भजन में उतना आसक्त नहीं रहता, जितना भजनीय विषय श्रीभगवान में आसक्त रहता है। आसक्ति की अवस्था में भगवान भक्त के मन और बृद्धि पर ऐसे छाये रहते हैं कि उसका हाव-भाव, बोल-चाल, आहार-विहारादि सब कुछ असंलग्न जैसा प्रतीत होता है, यदि उसे भगवान के चरणारविन्द प्राप्त करने की तीव्र उत्कण्ठा के सन्दर्भ में न देखा जाय।
*भाव या रति*
आसक्ति गाढ़तम होने पर भाव या रति में परिणत होती है। भाव की अवस्था में साधक स्फूर्ति में मानो श्रीकृष्ण को साक्षात पाकर आनन्दित होता है। रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृत-सिन्धु में भाव को प्रेम कल्प तरू का अंकुर कहा है।* भाव की दशा में साधक क्षोभ का कारण उपस्थित होते हुए भी अक्षुब्ध रहता है। इन्द्रियों के विषयों के प्रति उसे विरक्ति रहती है। उसका एक क्षण भी यदि भगवान के स्मरण-मनन के बगैर चला जाय तो उसे लगता है जैसे जन्म व्यर्थ चला गया। अपने उत्कर्ष में भी वह अभिमानहीन रहता है। श्रीकृष्ण की प्राप्ति होगी, इसकी उसे दृढ़ आस रहती है। साथ ही कृष्ण-प्राप्ति का उसे गुरुतर लोभ रहता है, जिसे समुत्कण्ठा कहा जाता है। भगवान के नाम-गान में उसकी सदा रूचि, भगवान के गुणगान में आसक्ति और भगवान के धाम में प्रीति रहती है।
*प्रेम*
भाग गाढ़ता प्राप्त कर प्रेम में परिणत होता है। प्रेम की दशा में साधक को सचमुच भगवान के साक्षात दर्शन होते हैं। वह उनके सौन्दर्य और माधुर्य का दर्शन कर चमत्कृत हो जाता है। तब उसे जो अकथनीय आनन्द होता है, उसकी तुलना उस आनन्द से करना भी झक मारना है, जो चिरकाल से दावानल से पीड़ित वन में भ्रमण करने वाले हाथी को घनघोर बादलों की असंख्य जल धाराओं में स्नान करने से मिलता है।* प्रेम के ऊपर के स्तर हैं स्नेह, मान, प्रणय, राम, अनुराग और महाभाव। यह साधक का देह रहते संभव नहीं है, क्योंकि इनके आस्वादन की उष्णता और शीतलता को सहन करने की उसकी देह में सामर्थ्य नहीं है।*
*मधुर भक्ति-रस*
मधुर-रस को रूप गोस्वामी ने उज्ज्वल-रस कहा है। उज्ज्वल-रस का नायक श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता। साधारण व्यक्तियों की तो बात ही क्या, परशुराम, नृसिंहादि अवतार भी नहीं हो सकते। श्रीकृष्ण ही उज्ज्वल रस के एक मात्र नायक या विषयालम्बन हैं और कृष्ण-प्रेयसियाँ आश्रयालम्बन हैं।
*(रूप गोस्वामी जी के बारे में और अधिक जानकारी आगे की कड़ियों में )*
*जय जय*
प्रस्तुति
*🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹*
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