4 मार्मिक कहानिया
4 मार्मिक कहानिया
कहानी 1: अंधविश्वास और लालच
गंगा किनारे कुम्भ का मेला अपने चरम पर था। लाखों श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगा रहे थे, और संत-महात्माओं के प्रवचन गूंज रहे थे। उन्हीं में से एक भीड़ में गिरीश अपनी बूढ़ी माँ, गौरी देवी, का हाथ थामे चला जा रहा था। गौरी देवी की आँखों में श्रद्धा थी, लेकिन गिरीश की आँखों में कुछ और ही था—लालच। पिता के गुजरने के बाद माँ के नाम ढेर सारी ज़मीन-जायदाद थी, लेकिन गिरीश उसे जल्द से जल्द अपने नाम कराना चाहता था।
गिरीश ने माँ को बड़े प्रेम से एक छोलाछाप तंबू में ले जाकर बैठाया। वहाँ एक साधु बाबा अफीम घोलकर प्रसाद के रूप में बाँट रहे थे। गिरीश ने माँ से कहा, “माँ, यह महाप्रसाद है। इसे ग्रहण करो, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे।” भोली माँ ने विश्वास कर अफीम मिला चूर्ण खा लिया। धीरे-धीरे उसकी आँखें बोझिल होने लगीं, और उसका दिमाग शून्य होता गया। गिरीश जानता था कि माँ अब होश में नहीं रहेगी, इसी का फायदा उठाते हुए उसने पहले से तैयार किए गए कागजों पर माँ का अंगूठा लगवा लिया।
माँ को पूरी तरह बेहोश देखकर गिरीश ने उसे वहीं एक कोने में छोड़ दिया और खुद कागजात लेकर निकल पड़ा। मेले की भीड़ में किसी ने ध्यान भी नहीं दिया कि एक बूढ़ी औरत अचेत पड़ी थी।
गिरीश को लगा कि उसने माँ से जायदाद हथिया ली, लेकिन नियति का न्याय भी अद्भुत होता है। अगले दिन जब गौरी देवी को होश आया, तो उन्हें कुछ याद नहीं था। एक भलेमानस ने उन्हें सहारा दिया और घर पहुँचाया। कुछ दिनों बाद जब गिरीश ने माँ को घर पर देखा, तो हैरान रह गया। लेकिन इस बार माँ पहले जैसी भोली नहीं थी। उसने गाँव के पंचों को बुलाया और सारी सच्चाई बता दी। दस्तावेज जाली साबित हुए और गिरीश को अपनी करनी की सजा मिली। गाँव वालों ने उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया। माँ की आँखों से आँसू बह रहे थे, लेकिन इस बार वह दर्द के नहीं, बल्कि न्याय मिलने के थे।
कहानी 2: कुम्भ के मेले में छोड़े गए माता–पिता
कुम्भ के मेले की चहल-पहल चरम पर थी। लाखों श्रद्धालु गंगा में स्नान कर रहे थे, भजन-कीर्तन की गूंज हर दिशा में फैल रही थी। उसी भीड़ में रामलाल और उनकी पत्नी सुमित्रा देवी सहमे हुए खड़े थे। उनकी आँखें अपने बेटों को ढूँढ़ रही थीं, जो कुछ देर पहले तक उनके साथ थे। लेकिन अब वे कहीं नजर नहीं आ रहे थे।
रामलाल और सुमित्रा के तीन बेटे थे—रमेश, सुरेश और महेश। तीनों अब बड़े हो चुके थे, लेकिन माता-पिता को एक बोझ समझने लगे थे। वे आए दिन कहते, “अब आप दोनों बुजुर्ग हो गए हैं, हमें आपके खर्च का बोझ उठाना पड़ता है।” कुछ दिनों पहले ही वे आपस में फुसफुसा रहे थे कि अगर माता-पिता को कुम्भ के मेले में छोड़ दिया जाए, तो कोई सवाल भी नहीं उठेगा और वे हमेशा के लिए उनसे छुटकारा पा लेंगे।
उनकी योजना के अनुसार, वे माता-पिता को कुम्भ में दर्शन के बहाने लाए और जैसे ही भीड़ बढ़ी, उन्हें अकेला छोड़कर चुपचाप निकल गए। रामलाल और सुमित्रा अब समझ चुके थे कि यह कोई संयोग नहीं था, बल्कि उनके बेटों की सोची-समझी साजिश थी। उनका दिल टूट गया।
वहां खड़े कुछ श्रद्धालुओं ने जब यह सब सुना, तो दंग रह गए। किसी ने उन्हें सहारा दिया, किसी ने खाना दिया, और किसी ने पास के वृद्धाश्रम में ले जाकर उनकी देखभाल की। धीरे-धीरे रामलाल और सुमित्रा को एहसास हुआ कि कभी-कभी खून के रिश्ते धोखा दे जाते हैं, लेकिन दुनिया में अभी भी भले लोग हैं जो निस्वार्थ मदद के लिए आगे आते हैं।
उधर, उनके तीनों बेटे चैन से घर लौटे। लेकिन नियति का न्याय देखने लायक था। जब गाँववालों को उनकी करतूत का पता चला, तो उन्हें समाज से बाहर कर दिया गया। उनके अपने बच्चे भी यह देखकर उनसे दूर हो गए। अब वे माता-पिता के प्यार से ही नहीं, बल्कि समाज की इज्जत से भी वंचित हो चुके थे।
कहानी 3: बूढ़े माता–पिता का दर्द
सूरज ढल रहा था। आकाश में बिखरी लालिमा किसी दर्द भरी कहानी का संकेत दे रही थी। गाँव के मुख्य रास्ते पर एक बूढ़ा आदमी कांपते हाथों से अपनी पत्नी का सहारा लिए धीरे-धीरे चल रहा था। उनके चेहरे पर थकान और आँखों में आँसू थे। यह बूढ़ा व्यक्ति रामशरण था और उनकी पत्नी जानकी देवी। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अपने तीन बेटों—रवि, मोहन और सुनील—को पढ़ाने-लिखाने में लगा दी। लेकिन जब माता-पिता को सहारे की जरूरत आई, तो उन बेटों ने ही उन्हें घर से निकाल दिया।
रामशरण और जानकी देवी अपने सबसे बड़े बेटे रवि के घर रहते थे। शुरू-शुरू में रवि ने माता-पिता का ध्यान रखा, लेकिन जब उसकी पत्नी को यह बोझ लगने लगा, तो उसने तरह-तरह के बहाने बनाने शुरू कर दिए। एक दिन उसकी पत्नी ने झूठा आरोप लगा दिया कि माँ ने उसे ताना मारा और पिता ने गुस्से में उसे अपमानित कर दिया। यह सुनकर रवि आग बबूला हो गया। बिना कुछ सोचे-समझे, माता-पिता का अपमान किया और उन्हें घर से बाहर निकाल दिया।
रामशरण और जानकी देवी की आँखों से आँसू थम नहीं रहे थे। कोई सहारा नहीं था, कोई जगह नहीं थी। वे सोचने लगे—क्या इसी दिन के लिए उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अपने बच्चों के लिए कुर्बान कर दी थी? उनका मन गाँव में रहने वाली उनकी बेटी सीमा की ओर गया। सीमा शादी के बाद अपने ससुराल चली गई थी, लेकिन हमेशा माता-पिता की चिंता करती थी।
सीमा जब दरवाजे पर आई और अपने बूढ़े माता-पिता को इस हालत में देखा, तो उसकी आँखों में भी आँसू भर आए। उसने बिना कुछ पूछे, माँ-बाप को अंदर बुलाया और उन्हें सहारा दिया। “बाबूजी, अब आप दोनों कहीं नहीं जाओगे। यही रहोगे।”
समय बीता, लेकिन नियति का न्याय अटल था। कुछ सालों बाद रवि, मोहन और सुनील को भी अपने बच्चों से वही व्यवहार मिला। जब वे बूढ़े हुए, तो उनकी संतानों ने भी उन्हें बोझ समझा। रवि को तब एहसास हुआ कि उसने अपने माता-पिता के साथ कितना बड़ा अन्याय किया था। लेकिन अब पछताने से कुछ नहीं हो सकता था।
कहानी 4: रामआसरे का न्याय
गाँव के सबसे पुराने पीपल के पेड़ के नीचे एक बुजुर्ग आदमी गहरी सोच में बैठा था। सफेद बाल, झुकी हुई कमर और आँखों में बेबसी की लकीरें। यह रामआसरे थे, जिनकी जिंदगी का सफर अब अकेलेपन और दर्द से भरा था।
रामआसरे के तीन बेटे थे—रघु, श्याम और किशन। पत्नी के देहांत के बाद वह उन्हीं के साथ रहने लगे, यह सोचकर कि अब उनके बेटे ही उनका सहारा बनेंगे। लेकिन समय बीतने के साथ तीनों बेटों की शादियाँ हो गईं और उनका व्यवहार बदलने लगा।
“बाबूजी, अब आप बूढ़े हो गए हैं, हर बात में दखल मत दिया करो!” रघु ने एक दिन गुस्से में कहा। श्याम की पत्नी ताने मारने लगी, “सुबह-शाम बस चाय और खाने के लिए बैठे रहते हैं, कोई काम तो होता नहीं!” छोटे बेटे किशन की पत्नी तो यहाँ तक कहने लगी, “अब इन्हें अपने लिए अलग इंतजाम कर लेना चाहिए, हम लोग कोई नौकर थोड़े ही हैं!”
एक दिन उनकी तबीयत बहुत खराब हो गई। वे कराहते रहे, लेकिन किसी ने दवा तक लाकर नहीं दी। उसी वक्त उनके दिल में एक ठान ली—अब बहुत हुआ! अगले दिन वे तहसीलदार के पास गए और वकील को बुलाकर अपनी सारी संपत्ति से बेटों को बेदखल करने के कागजात तैयार करवा लिए।
जब बेटों को इस फैसले का पता चला, तो वे भागे-भागे आए। “बाबूजी, यह आप क्या कर रहे हैं?” रामआसरे ने पहली बार कठोर स्वर में कहा, “जब मैंने तुम तीनों को पाला-पोसा, तो किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी। लेकिन जब मुझे तुम्हारे सहारे की जरूरत थी, तब तुमने मुझे बोझ समझ लिया। अब मेरी संपत्ति पर कोई हक मत जताना।”
रामआसरे ने अपनी संपत्ति एक वृद्धाश्रम को दान कर दी और वहीं रहने चले गए। अब उनके पास कोई बेटा नहीं था, लेकिन वहां उन्हें अपनापन मिला, इज्जत मिली। उधर, बेटों को जब पैसे और ज़मीन से हाथ धोना पड़ा, तब उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने कितना बड़ा अन्याय किया था। लेकिन अब पछताने से कुछ नहीं हो सकता था।