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Smt Rajlata Saraswat

प्रसिद्व व्यक्तित्व विशेष परिचय

श्रीमती राजलता सारस्वत बीकानेर, राजस्थान

डॉ अभिषेक अग्रवाल, संपादक – द्वारिकाधीश डिवाईनमार्ट मासिक ई-पत्रिका।
मै अपने शोध कार्य के सिलसिले में राजस्थान जाना हुआ तो अपने मित्र श्री रोहित सारस्वत जी से मुलाकात स्वाभाविक ही था। शोध के इतर सामाजिक व्यवस्था और इस क्षेत्र में पुरानी रूढ़ियों खासकर महिलाओं के सम्मान, पारिवारिक स्तर और संघर्ष पर बात चल पड़ी तो पता चला कि जीवन में उनकी आदर्श उनकी सासू मा श्रीमती राजलता सारस्वत हैं। आश्चर्य हुआ तो इस बार इस चर्चा ने साक्षात्कार का रूप ले लिया। श्रीमती सारस्वत का जीवन वाकई में संघर्षो और आत्मविश्वास की मिसाल हैं। पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों के साथ-साथ अपनी रुचि 1⁄4 कविता और लेखन1⁄2 को समय के सूत्र में पिरोना अपने आप में एक उदाहरण हैं।

श्रीमती सरास्वत जी से मुलकात के दौरान उनसे बहुत सारी बाते हुई, और उनके बारे में जानने का मौका मिला। दैनिक भास्कर अखबार मे प्रकाशित हुआ उनके साक्षात्कार के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हॅू। शिक्षक -दिवस की पूर्व संध्या से ही मेरे स्टूडे ंट्स के फोन शुभकामना देने और आशीर्वाद लेने के लिए आर हे थे। मैं भी आल्हादित थी। मैं इन बच्चो से बात कर ही रही थी कि मेरी ननद ने कहा, भाभी अगर आप सर्विस करती तो न जाने कितना ऊचा जाती । खुशी हुई कि कभी तो किसी ने मुझे समझा। ननद को तो हंसकर जवाब दिया कि इस उमर में सरकार रिटायर करके वापस घर भेज देती, लेकिन मन की कसक व्यक्त कर पाना आज भी मेरे लिए मुश्किलहै। मैं अतीत के पन्ने पलटने लगी। चेन्नई शहर के एक राजस्थानी संभ्रात परिवार में जन्मी, कलकत्ता शहर में बचपन बीता। प्राइमरी स्कूल की शिक्षा भी वहीं ग्रहणकी। आगे की पढाई चेन्नई में जारी रखी। किशोर अवस्था में ही शादी कर देना, उन दिनों आम- सी बात थी। मैं चेन्नई में दसवीं कर रही थी। जिन्दगी को समझने की कोशिश भी नहीं की थी कि शादी हो गई। महानगर से गंगानगर के एक गांव की ढाणी में भावी जीवन व्यतीत करना था। यहा का जीवन महानगर के जीवन से बिलकुल विपरीत था। दादी सास से लेकर नन्हे देवर तक सबका मान रखना ही था। पशुओ का चारा कुतर ने से लेकर गोबर सफाई का सारा काम करना होता था। लकड़ी और उपलों का प्रयोग करके बीस जनो का खाना, बर्तन सफाई आदि करते दृकरते समय का पता ही नहीं चला।

अरहर और नरमा-कपास की लकड़ी को जलावन के रूप में काम लेते थे। सच पूछो तोआज भी वो धुआ आखों को सालता है। घर में जमीन- जायदाद को लेकर हमेशा कलह होती रहती। बहू होने के नाते घुटते रहना ही नियति थी, घुटन भरे माहौल से जब पीहर चेन्नई जाती तो मा कहती कि पीहर की बड़ाई ससुराल में , ससुराल की बुराई पीहर में नहीं करनी चाहिए। उनकी यह सीख आज तक निभा रही हूं घर की कलह ने विकराल रूप ले लिया तो पलायन करना पड़ा। हम बीकानेर आ गए। बेटी को तो समय रहते ही चेन्नई भेज दिया था। सीमित साधनो से बेटे की शिक्षा जारी रखी। समुन्द्र के किनार जब हम खड़े होते है तो हर लहर हमारे पाव के नीचे की मिटटी बहा ले जाती है। उसी तरह का ही व्यवहार रिश्तेदारों ने निभाया। समझ नहीं आता की गलती कहा हुई। एक वक्त के बाद बेटे को पढ़ने के लिए बाहर भेजना पड़ा। बेटी की स्कूली शिक्षा पूरी होने पर उसे यहा बुलाकर कॉलेज में दाखिला दिलवा दिया। जिंदगी रफ्तार पकड़ने लगी तो मुझमे भी कुछ आत्मविश्वास आ गया।

वर्ष 2001 में मैने अंग्रेजी और हिंदी की हैंडराइटिंग और केलीग्राफी की क्लास लेने की शुरुआत की। पंद्रह सालो तक बच्चो को मुफ्त सिखाया। पता नहीं मेरे सिखाने का तरीका अच्छा था या खुशकिस्मती से मुझे बच्चे अच्छे मिलते रहे। सभी बहुत संतुष्ट होकर जाते। आज पहली कक्षा के बच्चे से लेकर अंग्रेजी मीडियम स्कूल की टीचर्स तक हर उमर के लोग लिखावट सुधारने और केलीग्राफी सीखने मेरे पास आतेहै। मा सरस्वती का वरदहस्त मेरे सिर पर रहा। खुशनुमा माहौल में कब काम पूरा हो जाता पता ही नहीं चलता। बच्चे और उनके पेरेंट्स की खुशी मुझे सुकून देती और मेरा आत्मविश्वास बढाती है। विगत को भूलने का यह माध्यम कारगर रहा, लेकिन इस जगह पहुचने तक शरीर में कुछ रोगो ने अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी। 50 वर्ष की आयु होते-होते दोनों आखों में मोतिया बिंद हो गया। डाक्टरों की लापरवाही ने एक आख की रौशनी खतम कर दी। मुसीबतो से निजीरिश्ता सा है तो अगली मुसीबत के रूप में गर्भाशय का आपरेशन हुआ। परेशानिया आती रही, पर मैं कभी हारी नहीं। जब दृजब मुसीबत आती मैं ज्यादा जोश से काम में लग जाती। मेरा काम देख कर समर कैम्पव्ट्यूशन सेंटर्स से निमंत्रण मिलने लगे। मैंने भी पूरी ईमानदारी से अपना काम निभाया। जिन्दगी ने कुछ रफ्तार पकड़ी तो पता चला की ब्रेस्ट कैंसर हो गया। पिछले 2 साल से लगातार कीमोथैरेपी, रेडियोथैरेपी, ऑपरेशन के दौर चलते रहे। नियम से सारी दवाईया लेना भी एक कार्यक्रम बन गया। बीच दृबीच में, मैं क्लास लेती रही। नतीजा यह रहा कि मैं रोग से भी लड़पाई और अपना मनोबल भी नहीं कम होने दिया। मेरा आत्मविश्वास कम होना पुरे परिवार को परेशान कर सकता था। आज 60 साल की उम्र में भी मैं आजकल के बच्चो को बहुत ही अच्छी तरह समझ पा रही हू और बच्चे व उनके अभिभावक भी बहुत खुश होते है। यही मेरी कामयाबी है। भगवान की तरफ से दिया हुआ सबसे अनमोल तोहफा मेरे दोनों बच्चे है। भगवान से प्रार्थना है कि हर दम्पति को मेरे बेटे दृबेटी जैसी सन्तान दे। अमीरी पैसो की नहीं व्यवहार की ज्यादा मान दिलाती है। उच्च शिक्षित मेरे बच्चे हमेशा ही धरातल से जुड़कर दुसरो को हर संभव सहयोग देते है। कुछ बच्चे शिक्षक दिवस पर शुभकामना देने आए। उनके अभिवादन ने मुझे विचारो की तन्द्रा से जगाया। सब कुछ भूलकर मैं भी उनकी खुशी में शामिल हो गई। जिन्दगी इसी का नाम है। खुद पर भरोसा रखना ही खुद को हौसला देता है। शायद इसीलिए मेरे घर का नाम भी हमने आस-विशवास रखा।

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