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एक वैदिक कथा: जब राजा ने बकरे को तृप्त करने की शर्त रखी

🧠 एक वैदिक कथा: जब राजा ने बकरे को तृप्त करने की शर्त रखी

— मन की चंचलता और आत्म-संयम का अद्भुत प्रतीक

प्राचीनकाल में एक धर्मनिष्ठ राजा ने एक विचित्र घोषणा की:
“जो कोई इस बकरे को वन में ले जाकर पूर्णतः तृप्त कर दे, मैं अपना आधा राज्य उसे प्रदान करूँगा। लेकिन तृप्ति की परीक्षा स्वयं मैं करूँगा।”

कहने को तो यह काम सरल लगा। एक-एक करके कई लोग बकरे को वन में ले गए, उसे भरपेट घास खिलाई। जब उन्हें लगा कि बकरा अब तृप्त हो गया है, वे उसे दरबार में ले आए।
राजा ने बकरे के सामने ताजा घास रख दी — और बकरा तुरंत खाने लगा।

राजा बोले:
“यदि बकरा तृप्त होता, तो क्या वह अब भी घास चरता?”


📿 एक विद्वान ब्राह्मण का दृष्टिकोण

सभी प्रयास असफल होने के बाद एक ब्राह्मण ने यह कार्य अपने हाथ में लिया। उसने बकरे को वन में ले जाकर घास खाने से रोका, हर बार वह घास की ओर जाता, ब्राह्मण उसे छड़ी से परावृत्त करता।

धीरे-धीरे बकरे के भीतर यह धारणा बन गई कि घास खाने का प्रयास = पीड़ा, और उसने घास की ओर जाना ही छोड़ दिया।

जब ब्राह्मण बकरे को दरबार में लाया, राजा ने फिर से घास रखी — इस बार बकरे ने घास को देखा तक नहीं।
राजा प्रसन्न हुए और बोले: “तुमने सचमुच बकरे को तृप्त किया है।”


🔎 तात्त्विक अर्थ — बकरा कौन है? राजा कौन है?

यह कथा केवल बकरे की नहीं, मन की है।

  • बकरा = मन (चपल, इच्छाओं से भरा)

  • ब्राह्मण = आत्मा (विवेकी, संयमी)

  • राजा = परमात्मा (साक्षी, न्यायकारी)

जब तक मन केवल भोग, इच्छाओं और विषय-विकारों के पीछे भागता है, वह कभी तृप्त नहीं होता।
पर जब विवेक और संयम के “दंड” से प्रशिक्षित किया जाता है — तब मन नियंत्रित होता है।


🪔 महत्वपूर्ण श्लोक

“मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।”
मन ही बंधन का कारण है, और वही मोक्ष का भी।

“आत्मवशं मनो यः कुर्यात्, तं न कश्चन जेतुमर्हति।”
जो व्यक्ति अपने मन को वश में कर ले, उसे कोई नहीं जीत सकता।


🧘 जीवन का सार

  • मन रथ का सारथी है,

  • इन्द्रियाँ उसके घोड़े,

  • आत्मा उसकी सवारी।
    यदि मन चंचल रहा — जीवन लक्ष्य से भटक जाएगा।
    यदि मन संयमित हो — जीवन मोक्षमार्ग की ओर प्रवाहित होगा।


💬 अंतिम विचार

“कमाई बड़ी हो या छोटी — रोटी का आकार सबके घरों में एक-सा ही होता है।
यदि आप किसी को छोटा देख रहे हैं, तो या तो आप बहुत दूर खड़े हैं, या फिर अहंकार की ऊँचाई पर।”

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