ममता या मोह —भाग 3
ममता या मोह —भाग 3
वो शाम जो इंसानियत से पूछती रही सवाल रीना जब अस्पताल के दरवाजे से बाहर अपना कदम निकाली, तो लगा जैसे उसकी परछाई भी उस पर सवाल कर रही हो। हवा में बेटे की आत्मा की वो धीमी पुकार घुली थी —
“मां, अब तुम मुझे साथ चलोगी ना?”
वो आवाज़ उसके कानों तक नहीं, उसकी आत्मा तक पहुंची थी।
पर उसके कदम ठिठककर भी नहीं रुके। समाज के डर ने उसे आगे बढ़ा दिया — जैसे किसी अंधेरे ने ममता को निगल लिया हो।रात के सन्नाटे में स्टेशन का प्लेटफॉर्म उसके मन का आईना बन गया — सूना, ठंडा और बोझिल।
डॉक्टर शौर्य सॉरी रीना ने रिक्वेस्ट की कि मुझे स्टेशन तक छोड़ दीजिए तो डॉक्टर शौर्य ने अपनी गुरु की पत्नी होने के नाते आदेश का पालन किया और रास्ते में उन्होंने अपनी कार को रोक करके पास खड़े होकर कहा, “रीना जी, कुछ खा लीजिए… आपका रास्ता लंबा है।”
वो मुस्कराई, पर उस मुस्कान में काफी दर्द था। इस बात को समझते डॉक्टर शौर्य को देर नहीं लगी क्योंकि वह भी एक डॉक्टर थे।
“नहीं डॉक्टर साहब, भूख तो वहां छूट गई जहां मैंने अपने बच्चे को छोड़ा है। इसका थोड़ा सा ख्याल रखिएगा उनके पिताजी भी वहां पर नहीं है, नारियल पानी वगैरह जो कुछ चाहिए उसे उस पर थोड़ा सा ध्यान दीजिएगा।”
इतना का करके रीना ने स्टेशन की सिढ़ीयों की तरफ कदम बढ़ा दिया।ट्रेन की सीटी बजी। हवा में धुआं घुला और रीना की आंखों में नमी।
हर बार डिब्बा हिला, तो उसका मन भी कांपा — जैसे हर झटका उसे याद दिला रहा हो कि उसने पीछे अपनी आत्मा छोड़ दी है।उधर अस्पताल के कमरे में मृत्युंजय की निगाहें दरवाजे पर अटकी थीं।
हर बार नर्स आती तो दिल धक से गिर जाता — “शायद मां वापस आई हो।”
पर नहीं… पहचाने हुए कदमों की आहट आज भी दूर थी।डॉक्टर पिता कमरे में आए।
उन्होंने बेटे का सिर सहलाकर कहा, “बेटा, अब कैसा लग रहा है?”
मृत्युंजय ने बुझे स्वर में कहा,
“पापा, मां का होना भी एक किस्म की गैरहाजिरी लगता है… वो है भी और नहीं भी।”पिता ने आंखें पोंछ लीं। बोले-मेरे बेटे एक बात हमेशा याद रखना “कभी-कभी लोग समाज को देवता बना लेते हैं और अपनों को बलिदान।”
मृत्युंजय चुप रहा, पर उसकी आंखें कह उठीं — “शायद मेरी मां ने भी यही पूजा की है।”तीसरे दिन जब रीना का फोन आया, उसने पूछना चाहा — पिताजी आए?
“नहीं मां, वो दिल्ली में हैं,” बेटे ने उत्तर दिया।
कुछ पल चुप्पी रही।
फिर वह कहना चाहती थी, “बेटा ठहरो, मैं आ रही हूं।”
पर उसके होठों पर समाज ने ताला जड़ दिया।
उसने बस कहा, “ध्यान रखना बेटे, मैं जल्द आऊंगी…”
फिर फोन रख दिया — और उसके बाद सन्नाटा था, बस सांसों की थकी हुई आवाज़।दो दिन बाद रीना ने अपने फोन के व्हाट्सएप स्टेटस पर लिखा —
“जब समस्या अपनों से होती है, तो समाधान खोजना चाहिए, न्याय नहीं… क्योंकि न्याय एक को दुखी करता है और दूसरे को खुश।” मृत्युंजय ने वह स्टेटस देखा।
एक क्षण को उसकी आंखों में मां की तस्वीर उभरी — और अगले ही पल धुंधली पड़ गई।
वह भागता हुआ पिता के पास पहुंचा और बोला—
“पापा, क्या मां अब प्यार में भी तर्क ढूंढने लगी है? क्या ममता भी समझौते में बदल सकती है? क्या न्याय मांगना गलत है, जब कोई सिर्फ अपने हक का दर्द समझना चाहता है?”इतना कहते-कहते उसका गला भर आया।
आंखों का सैलाब रोका नहीं जा सका।
पिता ने उसे बाहों में भर लिया। बोले,
“बेटा, कुछ लोग अपने दिल को समाज की अदालत में पेश कर देते हैं… और तब ममता हार जाती है।”मृत्युंजय सिसक पड़ा।
“पापा, जब ममता डर से हार जाए, तो क्या उसे ममता कहना चाहिए? क्या ऐसी मां को भगवान माफ कर पाएगा?” कमरे की दीवारों पर सन्नाटा पसरा था, पर उस रात मानो हर ईंट रो रही थी।
बाहर हवा तेज चली — जैसे प्रकृति भी उस बेटे के दर्द पर आंसू बहा रही हो। डॉक्टर पिता ने उसके माथे को चूमकर कहा,
“बेटा, दर्द वही महान बनाता है जो उसे दूसरों के लिए सीख में बदल दे। तुम्हारी मां आज डर में डूबी है, पर एक दिन वह उस डर की सजा खुद को देगी। तब शायद तू वही होगा, जो उसे माफ करेगा।”मृत्युंजय ने आंखें बंद कीं।
पापा से धीरे से कहा, “तब तक मैं यही चाहूंगा कि कोई और बच्चा मेरी तरह मां के डर का शिकार न बने।”कमरे में जैसे कोई प्रकाश फैल गया।
अचानक वो अस्पताल, जो अब तक मौत की गंध से भरा था, उम्मीद की सांसें लेने लगा।
मृत्युंजय के शब्दों में अब तकलीफ थी, लेकिन उस तकलीफ ने उसे मजबूत बना लिया था।उसने अपनी डायरी में आखिरी पंक्ति लिखी —
“ममता कब मरती है?
जब मां अपने बेटे को छोड़कर समाज को पकड़ती है।
लेकिन इंसानियत कब जन्म लेती है?
जब कोई बेटा उस मां को माफ कर देता है।”उस पल से मृत्युंजय बस एक मरीज नहीं रहा —
वह समाज के उस हिस्से का प्रतीक बन गया,
जहां हर रिश्ता डर से बाहर निकलने की कोशिश करता है।
जहां हर मां, रीना की तरह, किसी न किसी कमरे के बाहर खड़ी है —
और हर बेटा, मृत्युंजय की तरह, अपनी आंखों में उम्मीद लिए कह रहा है —
“मां, अब तो लौट आओ… इस बार सिर्फ ममता लेकर।”
बस! कुछ ही दिनों बाद, बिहार में चुनाव का मौसम आया। पूरे नगर में झंडे, नारों और वादों की गूंज थी। पर इस भीड़ में एक चेहरा था, जो सबसे अलग, सबसे खाली था — रीना।
वह नवादा आई थी, अपने छोटे बेटे के साथ। पर ससुराल नहीं गई, न उस बेटे के घर, जिसने कभी अपना बचपन उसके आंचल की छांव में गुजारा था।
रीना सीधे चली गई पाठक के घर — वही पाठक, जो वर्षों से उसकी ममता की डोर अपने हाथों में थामे हुए था।पाठक ने कहा, “रीना, कल वोट डालना है, सुबह जल्दी पहुंचना मत भूलना। लोग देखेंगे तो अच्छा लगेगा। हमारा नाम ऊंचा होगा।”
रीना ने बस सिर हिला दिया — जैसे अब उसका जीवन किसी और की मर्जी पर चल रहा हो।
एक वक्त था जब बेटे की हर सांस पर उसकी नजर होती थी, अब वक्त ऐसा था कि किसी और के आदेश पर वह अपनी आत्मा तक गिरवी रख चुकी थी।पाठक की हर बात उसके भीतर गूंजती रहती — “रीना, आज दिन है…” तो उसके लिए सचमुच दिन होता, “आज रात है…” तो अंधेरा।
उसके भीतर की रीना अब मर चुकी थी। बस एक शरीर बचा था जो दूसरों के निर्देशों पर मुस्कराना, झुकना, और हां कहना जानता था।उस दिन जब वह वोटिंग बूथ पहुँची, तो भीड़ में कुछ चेहरे पुराने दिखे — उन्हीं गलियों के लोग, जहाँ उसका बेटा मृत्युंजय अब भी रहता था।
किसी ने हिम्मत करके पूछा,
“अरे रीना जी, घर नहीं जातीं क्या? बेटा यही रहता है न?”
रीना ने आंखें झुका लीं और जल्दी से बोली, “हां… जाती हूं कभी-कभी, बस काम बहुत रहता है, समय नहीं मिलता।”वो झूठ इतना बेमन बोला गया कि खुद हवा भी शर्मिंदा हो गई।
वो औरत जो कभी सच्चाई की मिसाल थी, आज समाज के डर और पाठक के जाल में फंसी हुई थी।
उसे यह भी नहीं पता चला कि पास ही मोहल्ले की कुछ औरतें उसकी बातें सुन रही हैं, और उनमें से एक ने धीमे से अपनी साड़ी का पल्ला समेटते हुए कहा —
“बेचारी… ना घर की रही, ना घाट की। जिस मां के बेटे ने अपनी आत्मा ममता के नाम लिख दी थी, वही आज किसी और की शिकंजे में फंसी है। भगवान बचाए ऐसी चमक से।”दूसरी बोली — “जब तक जवानी है, तब तक तो लोग पास रहेंगे। फिर जब साया भी साथ छोड़ देगा, तब देखना, वही बेटा, जिसे छोड़ गई थी, उस पर उसकी नजरें ढूंढेंगी। तब शायद महसूस करेगी कि जो एक पल की शर्म में खो दिया, वो पूरी जिंदगी की राहत था।”रीना ने यह सब सुना।
वह कुछ नहीं बोली, बस मुड़कर चली गई। लेकिन उसके भीतर कुछ टूट चुका था।
हर कदम के साथ उसे महसूस हो रहा था कि उसके जूतों से नहीं, आत्मा से आवाज़ आ रही है।घर लौटकर उसने आईने में खुद को देखा।
उसकी आंखों में मौत नहीं, आत्मग्लानि थी।
यहाँ उस अधूरी जिंदगी की कहानी को और गहराई, विस्तार और भावुकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। हर शब्द में दर्द छिपा है, हर वाक्य में टूटता हुआ मन नज़र आता है। अंत में मां और बेटे के बीच की ममता की अनंत दूरी को भी संवेदनशीलता से उकेरा गया है।वह दीपक जो बुझ गयारीना की दुनिया, अब एक जलती हुई लौ नहीं, बल्कि जली हुई राख बन चुकी थी। उसका हर दिन, हर रात, जैसे जैसे बुझती हुई चिंगारी के साथ खुद एक अधूरी दास्तान कहता।
रात के सन्नाटे में मोबाइल का स्क्रीन थर-थराना उसकी टूटती हुई उम्मीदों की तरह था।
संवेदनाएं अब कांपती उंगलियों के बीच से बहती थीं, लेकिन जवाब में आई सिर्फ़ गहरी सांसें — एक ऐसी दूरी की गुहार जो शायद कभी पूरी न हो सके।“बेटा…” उसकी आवाज़ टूटने लगी, जैसे तार उलझे हुए संगीत की पिटारी में हों।
“मैं नवादा आई हूं… मैं तेरे बहुत पास भी नहीं आ सकी, बस एक सड़क के उस पार…”सन्नाटा। एक ऐसा सन्नाटा जिसे तोड़ा नहीं जा सकता।
धड़कनों के बीच बढ़ता एक दरार, हर बात में एक मासूम खामोशी पनपती थी।“मां, अब पास आने की जरूरत नहीं है… तुम्हें केवल पाठक प्यारा है न?
जाओ उसी के पास… बेसब्री से इंतजार कर रहा होगा… पाठक।
मां, तुम्हें मेरे पास आने में साल लग सकते हैं, और मुझे तुमसे दूर जाने में एक पल।”यह शब्द मांस और हड्डी से टकराकर रीना की आत्मा को चीर गए।
उस इशारों भरे प्यार के बदले उस सपने की उदासी ने उसे पत्थर बना दिया।
पहले जो मां थी, वो अब एक छाया जैसे रह गई थी, जिस पर समय ने अपना निशान छोड़ दिया था।उस रात, रीना के भीतर घूम रही भावनाएं— डर, तोड़फोड़, और चाह — एक अजीब उबाल पर थीं।
उस डर ने उस पर जकड़ लिया कि प्रेम खोने का असली अर्थ क्या होता है।
और उसी के ठीक विपरीत, ममता ने अपनी एक नई ताकत महसूस कराई — जब सब कुछ खोकर भी, खुद को अकेले ही सही, पाने का हौंसला।रीना ने ठाना था कि अब वह वही करेगी जो अपनी आत्मा की आवाज़ नहीं दबा सकती—
“पाठक जी, अब मुझे कोई आदेश मत दीजिए… मैं अब किसी की उंगली पर नहीं चलना चाहती।
अब मैं वोट नहीं डालूंगी, बस एक इंसान बनना चाहूंगी।”उसके हाथ जब फोन को छोड़ने लगे, एक तरह से वे अपने शरीर के खिलाफ विद्रोह कर रहे थे।
वरना क्यों इतने वर्षों के बाद भी उसके दिमाग में वही सवाल गूंज रहे थे —
“क्यों हम इस पाठक के जंगल में फंस गए?
क्यों माँ की ममता मेरे बेटे के लिए और मेरे पति का प्यार मेरे लिए अब हमेशा के लिए समाप्त हो गया?”वहीं मृत्युंजय के दिल में भी ऐसे जख्म थे जिन्हें शब्दों ने कहना चाहा, पर कह न सके।
उसने मां की ममता को मतभेदों की दीवार से बांध दिया था, और खुद को भावनाओं के एक सूने कुएं में धकेल लिया था।
एक मूक चीख़ थी जो उसके भीतर दब कर रह गई —
कैसे मां को मना ले जो खुद टूट चुकी हो? कैसे लौट उनका दिल जो कभी अपने को स्वीकार ही न सका?अब मां और बेटे के बीच की खाई इतनी गहरी थी कि रोशनी तक जाने के लिए कोई पुल न बचा था।
दोनों अकेले थे, और वे जानते थे कि चाहे वे एक ही छत के नीचे क्यों न रहें,
ममता और प्यार के नाम पर जो जोड़े थे, वे सच में हमेशा के लिए टूट चुके थे।एक ऐसी खामोशी में डूब गए जो बोलती तो बहुत कुछ थी—
मृत्युंजय के दिल से मां की ममता और रीना के पति के दिल से उसका प्यार,
वो उस दिन का अंत था जब उनके दिलों के दरवाजे सदैव के लिए बंद हो गए।
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