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चाचा की दुकान और चाची का गुस्सा
आज सुबह की बात है। ट्रेन से उतरते ही हल्की ठंडक महसूस हुई, तो चाय पीने का मन किया। मैंने अपने सहपाठी से कहा, “चलो चाचा की दुकान पर चाय पीते हैं।” इस पर वह बोला, “अरे, उसकी चाय अच्छी नहीं होती।” मैंने हंसते हुए कहा, “कोई नहीं, हम बनवा लेंगे अच्छी वाली।”
हम दोनों दुकान की ओर बढ़े। चाचा हमेशा की तरह स्टोव जलाकर बैठे थे। दुकान छोटी मगर पुरानी थी, और वहां की चाय में एक अलग ही देसी स्वाद होता था। दुकान पर पहुंचते ही मैंने चाचा से कहा, “हाथ धुला दीजिए, मैं लघुशंका करके आया हूँ।” चाचा बोले, “नीचे रखा है, धूल लो।”
अभी मैं हाथ धो ही रहा था कि पीछे से चाची आ गईं। उन्होंने गुस्से में चाचा से कहा, “धुला नहीं सकते थे क्या?” उनकी आवाज़ में खीझ थी। मुझे भी यह बात थोड़ी बुरी लगी। चाचा झुंझलाकर बोले, “कम बोला करो!”
मेरा साथी यह कर असहज हो गया और बिना चाय पिए चला गया। लेकिन मुझे चाय पीनी थी, इसलिए मैं रुका रहा। मैंने खुद चाय बनवाई और इत्मीनान से पी। जब चाची थोड़ा शांत हुईं, तो मैंने उनसे पूछा, “आज गुस्सा क्यों हो?”
चाची बड़बड़ाने लगीं, “हमें ही करना है सब कुछ, कोई पूछने वाला नहीं। घर के काम भी, दुकान भी, और सुनने को भी हमें ही मिलता है।” उनकी आवाज़ में शिकायत थी। मुझे लगा कि शायद उन्होंने मेरी और मेरे साथी की बात सुन ली थी—कि चाय अच्छी नहीं बनती।
मैंने माहौल हल्का करने के लिए मुस्कुराते हुए कहा, “चाची, चाय अच्छी हो या ना हो, पर दुकान पर आपकी मौजूदगी ज़रूरी है। दुकान भी आप ही संभालती हैं और घर भी। बिना आपके चाय का मज़ा ही नहीं आएगा।”
चाची कुछ नहीं बोलीं, पर उनके चेहरे की शिकन थोड़ी कम हो गई। मैंने पैसे दिए और मुस्कुराते हुए कहा, “कल फिर आऊंगा, चाय पीने!”
शायद यह छोटी-सी बातचीत उनके दिन को थोड़ा हल्का कर गई थी।