भक्ति, दरिद्रता और उदारता — एक प्रेरणात्मक कथा
🌺 भक्ति, दरिद्रता और उदारता — एक प्रेरणात्मक कथा
भक्त का भंडार कभी खाली नहीं होता, वो भले ही दरिद्र दिखे, पर भीतर से समृद्ध होता है।
जगत जननी माँ पार्वती एक दिन श्मशान भूमि से गुजर रही थीं। वहाँ उन्होंने एक भक्त को चिता की राख और अंगारों पर रोटी सेंकते हुए देखा। वह दृश्य इतना करुण और असहनीय था कि माता का हृदय व्याकुल हो गया। वे सीधे भगवान शिव के पास पहुँचीं और पीड़ा से भरकर बोलीं —
“प्रभो! क्या आपको अपने भक्तों की ऐसी दशा देखकर भी दया नहीं आती?”
भगवान शंकर मुस्कराए और बोले —
“शुभे! मेरे द्वार भक्तों के लिए सदा खुले रहते हैं, पर वे आते ही नहीं। देने को सब कुछ है, पर ग्रहण करने को उनका मन तैयार नहीं होता। अपने कष्टों को अपना धर्म समझकर भोगते हैं। अब ऐसे में मैं क्या करूं?”
माँ पार्वती को यह उत्तर सहज स्वीकार नहीं हुआ। उन्होंने जिज्ञासा से पूछा —
“क्या आपके भक्तों को भूख-प्यास जैसी आवश्यकताओं की अनुभूति नहीं होती?”
शिव मुस्कराए —
“तुम तो परीक्षा लेने की आदी हो। चाहो तो स्वयं देख लो, पर सावधानी रखना।”
🌼 माँ पार्वती की परीक्षा
माँ पार्वती ने भिखारिन का वेश धारण किया और एक तपस्वी भक्त भर्तृहरि के पास पहुँचीं, जो उस समय अपनी दो रोटियाँ लेकर तप में लीन थे।
वो भिखारिन बनकर बोलीं —
“बेटा! कई दिनों से भूखी हूँ। क्या मुझे खाने को कुछ मिलेगा?”
भर्तृहरि ने बिना एक क्षण गँवाए दोनों रोटियाँ उन्हें दे दीं।
वो बोलीं —
“मैं अकेली नहीं, एक वृद्ध पति भी है। उसे भी कई दिन से कुछ नहीं मिला।”
भर्तृहरि ने वह भी सौंप दीं। उन्हें इस बात की संतुष्टि थी कि कोई और उनसे अधिक भूखा व्यक्ति तृप्त हो सकेगा।
🌟 ईश्वर प्रकट होते हैं
जैसे ही वह उठने लगे, पीछे से आवाज आई —
“वत्स! तुम कहाँ जा रहे हो?”
पीछे मुड़कर देखा तो स्वयं माँ पार्वती अपने दिव्य रूप में प्रकट थीं।
उन्होंने कहा —
“मैं तुम्हारी तपस्या और परदुखकातरता से अत्यंत प्रसन्न हूँ। माँगो जो वर मांगना है।”
भर्तृहरि ने हाथ जोड़कर कहा —
“आप तो अभी रोटियाँ माँगकर ले गई थीं। जो स्वयं दूसरों से लेता है, वह क्या देगा? मैं ऐसे भिखारी से क्या माँगूं?”
माँ मुस्कराईं और बोलीं —
“वत्स! मैं ही पार्वती हूँ, सर्वशक्तिमान शक्ति स्वरूपा। तुम्हारी दानशीलता ने मुझे प्रसन्न कर दिया है। वर माँग लो।”
🙏 सच्चा वरदान क्या है?
भर्तृहरि ने सिर झुकाकर माँ से एक ही वर माँगा —
“मुझे यही शक्ति दीजिए कि जो कुछ भी मुझे प्राप्त हो, उसे दीन-दुखियों के लिए समर्पित कर सकूं, और जब अभाव हो, तो भी **मन को विचलित किए बिना संतोषपूर्वक जीवन जी सकूं।”
माँ पार्वती ने ‘एवमस्तु’ कहा और अंतर्ध्यान हो गईं।
भगवान शिव यह सब देख रहे थे। उन्होंने पार्वती से कहा —
“भद्रे! मेरे भक्त इसलिए दरिद्र नहीं होते कि उन्हें कुछ मिलता नहीं…
बल्कि उनकी उदार भक्ति उन्हें सदा दान करने को प्रेरित करती है।
वे बाह्य रूप से दरिद्र लग सकते हैं, पर अंदर से परम संतोष से भरपूर होते हैं।”
भक्ति केवल पूजन-पाठ नहीं है,
सच्ची भक्ति तब प्रकट होती है जब हम
दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानकर,
उनकी सहायता बिना कोई अपेक्षा किए करते हैं।
“दीन-दुखियों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है।”