गरुड़-कथा
गरुड़-कथा
विनतानन्दन गरुड़ जब अण्डा फोड़कर बाहर निकले, तब नवजात शिशु की अवस्था में ही उन्हें आहार ग्रहण करने की इच्छा हुई। वे भूख से व्याकुल होकर माता से बोले–’माँ! मुझे कुछ खाने को दो।’
पर्वत के समान शरीर वाले महाबली गरुड़ को देखकर परम सौभाग्यवती माता विनता के मनमें बड़ा हर्ष हुआ। वे अपने पुत्र से बोलीं–’बेटा! मुझमें तेरी भूख मिटाने की शक्ति नहीं है। तेरे पिता धर्मात्मा कश्यप साक्षात् ब्रह्माजी के समान तेजस्वी हैं। वे सोन नदी के उत्तर तटपर तपस्या करते हैं। वहीं जा और अपने पिता से इच्छानुसार भोजन के विषय में परामर्श कर। तात ! उनके उपदेश से तेरी भूख शान्त हो जायगी।’
ऋषि कहते हैं–‘माता की बात सुनकर मन के समान वेग वाले महाबली गरुड़ एक ही मुहूर्त में पिता के समीप जा पहुँचे। वहाँ प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी अपने पिता मुनिवर कश्यपजी को देखकर उन्हें मस्तक झुका प्रणाम किया और इस प्रकार कहा–’प्रभो! मैं आपका पुत्र हूँ और आहार की इच्छा से आपके पास आया हूँ। भूख बहुत सता रही है, कृपा करके मुझे कुछ भोजन दीजिये।’
कश्यपजी ने कहा–‘वत्स ! उधर समुद्र के किनारे विशाल हाथी और कछुआ रहते हैं। वे दोनों बहुत बड़े जीव हैं। उनमें अपार बल है। वे एक दूसरे को मारने की घात में लगे हुए हैं। तू शीघ्र ही उनके पास जा, उनसे तेरी भूख मिट सकती है।’
पिता की बात सुनकर महान् वेगशाली और विशाल आकार वाले गरुड़ उड़कर वहाँ गये तथा उन दोनों को नखों से विदीर्ण करके चोंच और पंजों में लेकर विद्युत् के समान वेग से आकाश में उड़ चले।
उस समय मन्दराचल आदि पर्वत उन्हें धारण नहीं कर पाते थे। तब वे वायुवेग से दो लाख योजन आगे जाकर एक जामुन के वृक्ष की बहुत बड़ी शाखा पर बैठे।
उनके पंजा रखते ही वह शाखा सहसा टूट पड़ी। उसे गिरते देख महाबली पक्षिराज गरुड़ ने गौ और ब्राह्मणों के वध के भय से तुरन्त पकड़ लिया और फिर बड़े वेग से आकाश में उड़ने लगे।
उन्हें बहुत देर से आकाश में मँडराते देख भगवान् श्रीविष्णु मनुष्य का रूप धारण कर उनके पास जा इस प्रकार बोले–’पक्षिराज! तुम कौन हो और किसलिये यह विशाल शाखा तथा ये महान् हाथी एवं कछुआ लिये आकाश में घूम रहे हो ?’
उनके इस प्रकार पूछने पर पक्षिराज ने नररूपधारी श्रीनारायण से कहा–’महाबाहो ! मैं गरुड़ हूँ। अपने कर्म के अनुसार मुझे पक्षी होना पड़ा है। मैं कश्यप मुनि का पुत्र हूँ और माता विनता के गर्भ से मेरा जन्म हुआ है। देखिये, इन बड़े-बड़े जीवों को मैंने खाने के लिये पकड़ रखा है।
वृक्ष और पर्वत–कोई भी मुझे धारण नहीं कर पाते।
अनेकों योजन उड़ने के बाद मैं एक विशाल जामुन का वृक्ष देखकर इन दोनों को खाने के लिये उसकी शाखा पर बैठा था; किन्तु मेरे बैठते ही वह भी सहसा टूट गयी, अतः सहस्रों ब्राह्मणों और गौओ के वध के डर से इसे भी लिये डोलता हूँ। अब मेरे मन में बड़ा विषाद हो रहा है कि क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कौन मेरा वेग सहन करेगा।’
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श्रीविष्णु बोले–’अच्छा, मेरी बाँह पर बैठकर तुम इन दोनों हाथी और कछुए को खाओ।
गरुड़ ने कहा–‘बड़े-बड़े पर्वत भी मुझे धारण करने में असमर्थ हो रहे हैं; फिर तुम मुझ जैसे महाबली पक्षी को कैसे धारण कर सकोगे ? भगवान् श्रीनारायण के सिवा दूसरा कौन है, जो मुझे धारण कर सके। तीनों लोकों में कौन ऐसा पुरुष है, जो मेरा भार सह लेगा।’
श्रीविष्णु बोले–‘पक्षिश्रेष्ठ! बुद्धिमान् पुरुष को अपना कार्य सिद्ध करना चाहिये, अतः इस समय तुम अपना काम करो। कार्य हो जाने पर निश्चय ही मुझे जान लोगे।’
गरुड़ ने उन्हें महान् शक्ति सम्पन्न देख मन-ही-मन कुछ विचार किया, फिर ‘एवमस्तु’ कहकर वे उनकी विशाल भुजा पर बैठे। गरुड़ के वेग पूर्वक बैठने पर भी उनकी भुजा काँपी नहीं। वहाँ बैठकर गरुड़ ने उस शाखा को तो पर्वत के शिखर पर डाल दिया और हाथी तथा कछुए को भक्षण किया। तत्पश्चात् वे श्रीविष्णु से बोले–’तुम कौन हो ? इस समय तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?’
भगवान् श्रीविष्णु ने कहा–‘मुझे नारायण समझो, मैं तुम्हारा प्रिय करने के लिये यहाँ आया हूँ।’
यह कहकर भगवान् ने उन्हें विश्वास दिलाने के लिये अपना रूप दिखाया। मेघ के समान श्याम विग्रह पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। चार भुजाओं के कारण उनकी झाँकी बड़ी मनोरम जान पड़ती थी। हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये सर्वदेवेश्वर श्रीहरि का दर्शन करके गरुड़ ने उन्हें प्रणाम किया और कहा–’पुरुषोत्तम ! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?’
श्रीविष्णु बोले–‘सखे! तुम बड़े शूरवीर हो, अतः हर समय मेरा वाहन बने रहो।’
यह सुनकर पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़ ने भगवान् से कहा–’देवेश्वर! आपका दर्शन करके मैं धन्य हुआ, मेरा जन्म सफल हो गया। प्रभो! मैं पिता-माता से आज्ञा लेकर आपके पास आऊँगा।’
तब भगवान् ने प्रसन्न होकर कहा–‘पक्षिराज! तुम अजर-अमर बने रहो, किसी भी प्राणी से तुम्हारा वध न हो। तुम्हारा कर्म और तेज मेरे समान हो। सर्वत्र तुम्हारी गति हो। निश्चय ही तुम्हें सब प्रकार के सुख प्राप्त हो। तुम्हारे मन में जो-जो इच्छा हो, सब पूर्ण हो जाय। तुम्हें अपनी रुचि के अनुकूल यथेष्ट आहार बिना किसी कष्टके प्राप्त होता रहेगा। तुम शीघ्र ही अपनी माता को कष्टसे मुक्त करोगे। ऐसा कहकर भगवान् श्रीविष्णु तत्काल अन्तर्धान हो गये।’
गरुड़ ने भी अपने पिता के पास जाकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया। गरुड़ का वृत्तान्त सुनकर उनके पिता महर्षि कश्यप मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और अपने पुत्र से इस प्रकार बोले।
कश्यप मुनि बोले–‘खगश्रेष्ठ ! मैं धन्य हूँ, तुम्हारी कल्याणमयी माता भी धन्य है। माता की कोख तथा यह कुल, जिसमें तुम्हारे जैसा पुत्र उत्पन्न हुआ–सभी धन्य हैं। जिसके कुल में वैष्णव पुत्र उत्पन्न होता है; वह धन्य है, वह वैष्णव पुत्र पुरुषों में श्रेष्ठ हैं तथा अपने कुल का उद्धार करके श्रीविष्णु का सायुज्य प्राप्त करता है।
जो प्रतिदिन श्रीविष्णु की पूजा करता, श्रीविष्णु का ध्यान करता, उन्हीं के यश को गाता, सदा उन्हीं के मन्त्र को जपता, श्रीविष्णु के ही स्तोत्र का पाठ करता, उनका प्रसाद पाता और एकादशी के दिन उपवास करता है, वह सब पापों का क्षय हो जाने से निस्सन्देह मुक्त हो जाता है।
जिसके हृदय में सदा ही श्रीगोविन्द विराजते हैं, वह नरश्रेष्ठ विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। जल में, पवित्र स्थान में, उत्तम पथ पर, गौ में, ब्राह्मण में, स्वर्ग में, ब्रह्माजी के भवन में तथा पवित्र पुरुष के घर में सदा ही भगवान् श्रीविष्णु विराजमान रहते हैं।
इन सब स्थानों में जो भगवान् का जप और चिन्तन करता है, वह अपने पुण्य के द्वारा पुरुषों में श्रेष्ठ होता है और सब पापों का क्षय हो जानेसे भगवान् श्रीविष्णु का किंकर होता है। जो श्रीविष्णु का सारूप्य प्राप्त कर ले, वही मानव संसार में धन्य है। बड़े-बड़े देवता जिनकी पूजा करते हैं, जो इस जगत् के स्वामी, नित्य, अच्युत और अविनाशी हैं, वे भगवान् श्रीविष्णु जिसके ऊपर प्रसन्न हो जायें, वही पुरुषों में श्रेष्ठ है।
नाना प्रकार की तपस्या तथा भाँति-भाँति के धर्म और यज्ञों का अनुष्ठान करके भी देवता लोग भगवान् श्रीविष्णु को नहीं पाते; किन्तु तुमने उन्हें प्राप्त कर लिया। अतः तुम धन्य हो।
तुम्हारी माता सौत के द्वारा घोर संकट में डाली गयी है, उसे छुड़ाओ। माता के दुःख का प्रतीकार करके देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णु के पास जाना।’
इस प्रकार श्रीविष्णु से महान् वरदान पा और पिता की आज्ञा लेकर गरुड़ अपनी माता के पास गये और हर्ष पूर्वक उन्हें प्रणाम करके सामने खड़े हो उन्होंने पूछा–’माँ! बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ? कार्य करके मैं भगवान् विष्णु के पास जाऊँगा।’
यह सुनकर सती विनता ने गरुड़ से कहा–’बेटा! मुझ पर महान् दुःख आ पड़ा है, तुम उसका निवारण करो। बहिन कद्रू मेरी सौत है। पूर्वकाल में उसने मुझे एक बात में अन्यायपूर्वक हराकर दासी बना लिया। अब मैं उसकी दासी हो चुकी हूँ। तुम्हारे सिवा कौन मुझे इस दुःख से छुटकारा दिलायेगा। कुलनन्दन ! जिस समय मैं उसे मुँहमाँगी वस्तु दे दूँगी, उसी समय दासीभाव से मेरी मुक्ति हो सकती है।’
गरुड़ ने कहा–‘माँ ! शीघ्र ही उसके पास जाकर पूछो, वह क्या चाहती है ? मैं तुम्हारे कष्ट का निवारण करूँगा।’
तब दुःखिनी विनता ने कद्रू से कहा–’कल्याणी ! तुम अपनी अभीष्ट वस्तु बताओ, जिसे देकर मैं इस कष्ट से छुटकारा पा सकूँ।’
यह सुनकर उस दुष्टा ने कहा–’मुझे अमृत ला दो।’ उसकी बात सुनकर विनता धीरे-धीरे लौटी और बेटे से दुःखी होकर बोली- ‘तात ! वह तो अमृत माँग रही है, अब तुम क्या करोगे ?’
गरुड़ ने कहा–’माँ ! तुम उदास न हो, मैं अमृत ले आऊँगा।’ यों कहकर मन के समान वेगवान् पक्षी गरुड़ सागर से जल ले आकाशमार्ग से चले। उनके पंखों की हवा से बहुत-सी धूल भी उनके साथ-साथ उड़ती गयी। वह धूलराशि उनका साथ न छोड़ सकी। गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर गरुड़ ने अपनी चोंच में रखे हुए जल से वहाँ के अग्निमय प्राकार (परकोटे) को बुझा दिया तथा अमृत की रक्षा के लिये जो देवता नियुक्त थे, उनकी आँखों में पूर्वोक्त धूल भर गयी, जिससे वे गरुड़जी को देख नहीं पाते थे। बलवान् गरुड़ ने रक्षकों को मार गिराया और अमृत लेकर वे वहाँ से चल दिये।
पक्षी को अमृत लेकर आते देख ऐरावतपर चढ़े हुए इन्द्र ने कहा–’अहो ! पक्षी का रूप धारण करने वाले तुम कौन हो, जो बल पूर्वक अमृत को लिये जाते हो ? सम्पूर्ण देवताओं का अप्रिय करके यहाँ से जीवित कैसे जा सकते हो।’
गरुड़ ने कहा–’देवराज! मैं तुम्हारा अमृत लिये जाता हूँ, तुम अपना पराक्रम दिखाओ।’
यह सुनकर महाबाहु इन्द्र ने गरुड़ पर तीखे बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, मानो मेरुगिरि के शिखर पर मेघ जल की धाराएँ बरसा रहा हो। गरुड़ ने अपने वज्र के समान तीखे नखों से ऐरावत हाथी को विदीर्ण कर डाला तथा मातलि सहित रथ और चक्कों को हानि पहुँचाकर अग्रगामी देवताओं को भी घायल कर दिया।
तब इन्द्र ने कुपित होकर उनके ऊपर वज्र का प्रहार किया। वज्र की चोट खाकर भी महापक्षी गरुड़ विचलित नहीं हुए। वे बड़े वेग से भूतल की ओर चले। तब इन्द्र ने सब देवताओं के आगे स्थित होकर कहा–’निष्पाप गरुड़ ! यदि तुम नागमाता को इस समय अमृत दे दोगे तो सारे साँप अमर हो जायँगे; अतः यदि तुम्हारी सम्मति हो तो मैं इस अमृत को वहाँ से हर लाऊँगा।’
गरुड़ बोले–’मेरी साध्वी माता विनता दासीभाव के कारण बहुत दुःखी है। जिस समय वह दासीपन से मुक्त हो जाय और सब लोग इस बात को जान लें, उस समय तुम अमृत को हर ले आना।
यों कहकर महाबली गरुड़ माता के पास जा इस प्रकार बोले–’माँ! मैं अमृत ले आया हूँ, इसे नागमाता को दे दो।’ अमृत सहित पुत्र को आया देख विनता का हृदय हर्षसे खिल उठा। उसने कद्रू को बुलाकर अमृत दे दिया और स्वयं दासीभाव से मुक्त हो गयी।
इसी बीच में इन्द्र ने सहसा पहुँचकर अमृत का घड़ा चुरा लिया और वहाँ विष का पात्र रख दिया। उन्हें ऐसा करते कोई देख न सका। कद्रू का मन बहुत प्रसन्न था। उसने पुत्रों को वेग पूर्वक बुलाया और उनके मुख में अमृत जैसा दिखायी देने वाला विष दे दिया।
नागमाता ने पुत्रों से कहा–‘तुम्हारे कुल में होने वाले सभी सर्पों के मुख में ये अमृत की बूँदें नित्य निरन्तर उत्पन्न होती रहें तथा तुम लोग इनसे सदा सन्तुष्ट रहो।’ इसके बाद गरुड़ अपने पिता-माता से वार्तालाप करके देवताओं की पूजा कर अविनाशी भगवान् श्रीविष्णु के पास चले गये।
जो गरुड़ के इस उत्तम चरित्र का पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर देवलोक में प्रतिष्ठित होता है।’