किसे कहते हैं सत्संग-?
*किसे कहते हैं सत्संग-,,? 👇*
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तुलसीदास जी ने सत्संगति को सब मङ्गलों का मूल कहा है।
सत्संग का अर्थ है,“किसी सच्चरित्र का साथ अथवा संत महात्माओं की गोष्ठी में बैठकर मनोयोग से उनकी अमरवाणी से निकले सदुपदेशों का श्रवण एवं पुनः अनुकूल आचरण करना ही सत्संग है।
”सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोई फल सिधि सब साधन फूला॥
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥”
अर्थात् हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है॥
हमारे देश का पौराणिक और धार्मिक कथा साहित्य बड़ा ही समृद्धिशाली हैं, ऋषि- मुनियों ने भारतीय ज्ञान, नीति,सत्य प्रेम न्याय संयम धर्म तथा उच्च कोटि के नैतिक सिद्धांतों को जनता तक पहुँचाने के लिए बड़े ही मनो वैज्ञानिक ढंग से अनेक प्रकार की धार्मिक कथाओं की रचना की हैं। इनमें दुष्ट प्रवृत्तियों की हमेशा हार दिखाकर उन्हें छोड़ने की प्रेरणा दी गई हैं,इस प्रकार ये कथाएं हमें पापबुद्धि से छुड़ाती हैं। हमारी नैतिक बुद्धि को जगाती हैं जिससे मनुष्य सब्य, सुसंस्कृत और पवित्र बनता हैं भगवान की कथा को भव-भेषज, सांसारिक कष्ट पीड़ाओं और पतन से मुक्ति दिलाने वाली ओषधि कहा जाता हैं,इसलिए कथा सुनने तथा सत्संग का बहुत महत्त्व होता हैं। वेद व्ययास जी ने भागवत की रचना इसलिए की ताकि लोग कथा के द्वारा ईश्वर के आदर्श रूप को समझें और उसको अपनाकर जीवनलाभ उठाये।
भगवान की कथा को आधिभौतिक आदिदैविक एवं आधात्मिक तापों को काटने वाली कहा गया हैं यानि इनका प्रभाव मृत्यु के बाद ही नहीं जीवन में भी दिखाई देने लगता हैं. सांसारिक सफलताओं से लेकर पारलौकिक उपलब्धियों तक उसकी गति बनी रहने से जीवन की दिशा ही बदल जाती हैं। पाप और पूण्य का सही स्वरूप भगवत गीता से समझ आता हैं,इससे अपने हर पापों का छय तथा पुण्यों की वृद्धि की जा सकती हैं,व्यक्ति अपने बंधनो को छोड़ने और तोड़ने में सफल हो जाता हैं,तथा मुक्ति का अधिकारी बन जाता हैं,इससे अलावा कथा सुनने से जीवन की समसयाओं कुंठाओं विडम्बनाओं का समाधान आसानी से मिल जाता हैं।
आत्मानुशासन पांच में कहा गया हैं की जो बुद्धिमान हो जिसने समस्त शास्त्रों का रहस्य प्राप्त किया हो लोक मर्यादा जिससे प्रकट हुई हो कांतिमान हो, उपशमि हो, प्रश्न करने से पहले ही जिसने उत्तर जाना हो,बाहूल्यता से प्रश्नों को सहने वाला हो, प्रभु हो, दूसरे की तथा दूसरे के द्वारा अपनी निंदारहित गूढ़ से दूसरे के मन को हरने वाला हो गुण निधान हो जिसके वचन स्पष्ट और मधुर हों सभा का ऐसा नायक धर्मकथा कहें। स्कन्दपुराण में सूतजी कहते हैं- श्री मद्भागवत का जो श्रवण करता हैं,वह अवस्य ही भगवान के दर्शन करता हैं.
किन्तु कथा का श्रवण, पाठन, श्रद्धाभक्ति, आस्था के साथ-साथ विधिपूर्वक होना चाहिए अन्यथा सफलता की प्राप्ति नहीं होती। श्रीमद्भागवत जी में लिखा हैं की जहाँ भगवत कथा की अमृतमयी सरिता नहीं बहती, जहाँ उसके कहने वाले भक्त, साधुजन निवास नहीं करते, वह चाहें ब्र्म्हलोक ही क्यों ना हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिए। धर्मिककथा, प्रवचन आदि का महात्म केवल उसके सुनने मात्र तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उनपर श्रद्धापूर्वक मनन ,चिंतन और आचरण करने में हैं।
श्रद्धा के लिए मात्र जगदिखाने के लिए कथा आदि सुनने का कोई फल नहीं मिलता. एक बार किसी भक्त ने नारद ने पूछा- भगवान की कथा के प्रभाव से लोगों के अंदर भाव और वैराग्य के भाव जागने और पुष्ट होने चाहिए। वह क्यों नहीं होते, नारद ने कहा- ब्राम्हण लोग केवल अन्न, धनादि के लोभवश घर-घर एवं जन-जन को भगवतकथा सुनाने लगे हैं। इसलिए भगवत का प्रभाव चला गया हैं. वीतराग शुकदेवजी के मुहं से राजा परीक्षित ने भगवत पुराण की कथा सुनकर मुक्ति प्राप्त की और स्वर्ग चले गए।
सुकदेव ने परमार्थभाव से कथा कही थी और परीक्षित ने उसे आत्मकल्याण के लिए पूर्ण श्रद्धाभाव से सुनकर आत्मा में उत्तर लिया था इसलिए उन्हें मोक्ष मिला। सत्संग के विषय में कहा जाता हैं की भगवान की कथाएँ कहने वाले और सुनने वाले दोनों का ही मन और शरीर दिव्य एवं तेजमय होता चला जाता हैं. इसी तरह कथा सुनने से पाप कट जाते है और प्रभु कृपा सुलभ होकर परमांनद की अनुभूति होती हैं।
भय विपत्ति रोग दरिद्रता में सांत्वना उत्साह और प्रेरणा की प्राप्ति होती हैं मन और आत्मा की चिकित्साह पुनरुद्धार प्राणसंचार की अद्भुत शक्तियां मिलती हैं. विपत्ति में धैर्य, आवेश में विवेक व् कल्याण चिंतन में मदत प्राप्त होती हैं।
आत्म सुख और परम शान्ति के लिये साधु महात्माओं, संतों का सत्संग परमावश्यक है। इसके बिना जीवन का कोई आस्वादन नहीं। इस सत्संग के पुण्य लाभ के निमित्त ही नर देही धारण करने के लिये देवगण भी सदा लालायित रहते हैं।गोस्वामी तुलसीदास जी ने भक्ति सरोवर में स्नान करने के इच्छुक जनों से स्पष्ट शब्दों में कहा है।
“जो नहाइ चह यह सर भाई।
तौ सत्संग करै मन लाई॥”
वस्तुतः ज्ञान और कर्म, सर्वप्रथम सत्संग से ही अनुप्रेरित होते हैं जिसके लिए प्रभु की अनुकम्पा अपेक्षित है। जैसा कहा भी गया है।-
“बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥”
सत्पुरुषों के साहचर्य से केवल भगवत् भक्ति की ही प्राप्ति नहीं होती, अपितु पुरुष की अमानुषिक प्रवृत्तियों का भी इससे परिष्कार होता है। तुलसीदास जी कहते हैं।-
“शठ सुधरहिं सत्संगति पाई।
पारस परसि कुधातु सुहाई॥”
सत्संगति तो पारसमणि के तुल्य है। इसके बिना भगवद् भजन, संकीर्तन भजन, ध्यान, पूजन, अर्चन, वंदन असंभव नहीं तो दुस्तर अवश्य है। गुसाँई जी के शब्दों में।-
“बिनु सत्संग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गए बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥”
प्रभु के चरणाम्बुजों में प्रेम की दृढ़ता के लिए सत्संग अपेक्षित है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने संत समागम के क्षणमात्र से ही अनेक पापों को मिटना बतलाया है,केवल एक घड़ी में ही।-
“एक घड़ी आधी घड़ी और आध की आध।
तुलसी संगति साधु की कोटिन हरैं व्याधि॥”
भले ही आप बहुत अल्प(थोड़े) समय के लिए भी किसी संत या सज्जन व्यक्ति की संगति करें,तो वह समय भी बहुत मूल्यवान और फलदायक हो जाता है।
जयति जयति जयपुण्य सनातन संस्कृति,
जयति जयति जयपुण्य भारतभूमि,
मङ्गल कामनाओं के साथ.
*जय जय श्री राम🙏*