ध्यान: तुम्हारा आत्यंतिक स्वभाव
🧘♀️ ध्यान: तुम्हारा आत्यंतिक स्वभाव
“जहाँ मन समाप्त होता है, वहाँ ध्यान आरंभ होता है।”
यह कोई सिर्फ कहने की बात नहीं, बल्कि अनुभव की बात है। ध्यान कोई अभ्यास नहीं है जिसे करना पड़े — यह तुम्हारा मूल स्वरूप है, तुम्हारा स्वाभाविक अस्तित्व।
🌿 मन और ध्यान का अंतर
मन विचारों की एक अंतहीन श्रृंखला है — भविष्य की चिंता, अतीत की स्मृति और वर्तमान की व्याख्या। यह हमेशा कुछ करता रहता है, व्यस्त रहता है।
ध्यान, इसके विपरीत, एक शुद्ध स्थिति है — एक मौन, एक गहराई, जहाँ कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होती।
मन भ्रम है, ध्यान स्पष्टता है।
मन कभी भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि वह विचारों से बना होता है — और विचार धुंध जैसे होते हैं।
इसलिए जीवन में बहुत कुछ मन के द्वारा किया जा सकता है — पढ़ाई, काम, योजना, कल्पना।
लेकिन ध्यान?
ध्यान केवल होने से प्रकट होता है, करने से नहीं।
🕉 ध्यान कोई उपलब्धि नहीं है
यह जान लेना बहुत जरूरी है कि ध्यान किसी तपस्या या साधना से “प्राप्त” करने की चीज़ नहीं है।
बल्कि, यह तो पहले से ही तुम्हारे भीतर है।
तुम इसे कहीं बाहर खोज रहे हो — किताबों में, गुरुओं में, तकनीकों में। लेकिन यह तो पहले से तुम्हारे साथ है — हर श्वास में, हर मौन में, हर खालीपन में।
ध्यान तुम्हारा आत्यंतिक स्वभाव है।
यह वह है जो तुम वास्तव में हो — विचारों और पहचान की परतों के पीछे।
🔁 ध्यान को बस स्मरण करना है
ध्यान को पैदा नहीं करना पड़ता।
इसे बस पहचानना है।
यह तुम्हारे भीतर वैसे ही है जैसे संगीत बांसुरी में — केवल हवा का सही बहाव चाहिए।
इसलिए तुम्हें ध्यान को करना नहीं है — तुम्हें बस भीतर मुड़ना है।
ध्यान तुम्हारे होने का मौन रूप है।
यह तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है — जब भी तुम रुकने को तैयार हो, यह तुम्हारे भीतर प्रकट हो जाएगा।
ध्यान कोई गतिविधि नहीं है — यह तुम्हारी उपस्थिति की शुद्धतम अवस्था है।
तुम जितना गहरे अपने भीतर उतरोगे, उतना ही ध्यान स्वतः प्रकट होता जाएगा।
मन को शांत करो, और तुम पाओगे कि ध्यान तो हमेशा से तुम्हारे साथ था — बस तुमने देखा नहीं।