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Suvichaar

दानानां च समस्तानां
चत्वार्येतानि भूतले ।
श्रेष्ठानि कन्यागोभूमि-
विद्यादानानि सर्वदा॥

भावार्थ – _सभी दानों में चार प्रकार के दान जैसे – कन्यादान, गोदान, भूमिदान और विद्यादान इस भूमि पर सर्वश्रेष्ठ दान कहे गए हैं ।_
*🙏🌹राधे राधे 🌹🙏*
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पुनर्वित्तं पुनर्मित्रं पुनर्भार्या पुनर्मही।
एतत्सर्वं पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः पुनः ॥
(चाणक्य नीति अध्याय -१४/३)

भावार्थ- नष्ट हुआ धन पुनः प्राप्त हो जाता है, एक मित्र से मित्रता टूट जाने पर दूसरा मित्र मिल जाता है। स्त्री भी पुनः मिल जाती है, भू, सम्पत्ति, देश, राज्य फिर मिल सकते हैं, किन्तु मनुष्य का शरीर बार-बार नहीं मिलता।
🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न पश्यति।
सन्तुष्टश्चरतो नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्॥

व्यक्ति_को_चाहिए_की_वे_गधे_से_तीन_गुण_सीखें।

जिस प्रकार अत्यधिक थका होने पर भी वह बोझ ढोता रहता है, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी आलस्य न करके अपने लक्ष्य की प्राप्ति और सिद्धि के लिए सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए।

कार्य सिद्धि में ऋतुओं के सर्द और गर्म होने का भी चिंता नहीं करना चाहिए और जिस प्रकार गधा संतुष्ट होकर जहां – तहां चर लेता है, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी सदा सन्तोष रखकर कर्म में प्रवृत रहना चाहिये ।।

🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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मुक्तिमिच्छसि चेतात विषयान् विषवत् त्यज।
क्षमाऽऽर्जवदयाशौचं सत्यं पीयूषवत् पिब ॥
(चाणक्य नीति अध्याय -९/१)

भावार्थ-यदि मुक्ति-प्राप्ति की आकांक्षा हो तो विषयों को विष के समान त्याग देना चाहिए और क्षमा, दया, धैर्य, तितिक्षा, पवित्रता और सत्य का अमृत के समान सेवन करना चाहिए।
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सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा। वैकुंठनामग्रहणमशेषाघहरं विदुः।।

पतितः स्खलितो भग्नः संदष्टस्तप्त आहतः।हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हति यातनाम्।।
–भाग0 6/2/14-15

संकेत में, परिहास में, तान अलापने में अथवा किसी की अवहेलना करने ने में, गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय, सांप के डंसते समय, आग में जलते समय, चोट लगते समय अथवा विवशता से ही यदि मनुष्य ‘हरि हरि’ कह कर भगवान् के नाम का उच्चारण कर लेता है , वह यम यातना का पात्र नहीं रह जाता (उसको मुक्ति मिल जाती है)।
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यावत् वित्तोपार्जन सक्तः तावन्निज परिवारो रक्तः।
पश्चाद्धावति जर्जर देहे
वार्ता कोऽपि न पृच्छति गेहे॥
भज गोविन्दं’ ‘भज गोविन्दं’।
भज गोविन्दं मूढ़ मते॥

अर्थात्, जब तक धन कमाने की सामर्थ्य है, तब तक अपने स्वजन कुटुम्बी लोग भी अनुराग करते हैं। फिर जब वृद्धावस्था आती है और शरीर जीर्ण – शीर्ण हो जाता है, तब घर में उससे कोई बात भी नहीं पूछता। इसलिये हे अज्ञानी! मतिमन्द जीव! भगवान् का भजन कर।

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अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचय:।
आरोग्यं प्रियसंवासो गृध्येत्तत्र न पण्डितः।।
(महाभारत, शा. प. २०५/४)

अर्थात 👉 यौवन, रूप, जीवन, धन-संग्रह, आरोग्य और प्रियजनों का समागम ये सब अनित्य हैं। विवेकशील पुरुषों को इनमे आसक्त नहीं होना चाहिए।
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एको हि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः ।।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय ।। ६-३ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञों के अन्त में किये गये स्नान के समान फल देनेवाला होता है । इसके सिवाय प्रणाम में एक विशेषता है कि दस अश्वमेध करने वाले का तो पुनः संसार में जन्म होता है, पर श्रीकृष्ण को प्रणाम करनेवाला अर्थात्‌ उनकी शरण में जानेवाला फिर संसार-बन्धन में नहीं आता
🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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यः पठति लिखति पश्यति
परिपृच्छति पंडितान् उपाश्रयति।
तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनी
दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥

भावार्थ —जो व्यक्ति जिज्ञासु होता है, पढ़ता है,लिखता है, देखता है,प्रश्न पूछता है,बुद्धिमानों का आश्रय लेता है । उसकी बुद्धि उसी प्रकार बढ़ती है जैसे कि सूर्य की किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ🪷 ।
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यत्रविश्वम्भबत्येक नीड शाठ्येन धर्मं कपटेन मित्रं,
परोपतापेन समृद्धिभावम्।
सुखेन विद्यां परुषेण नारीं, वाञ्छन्ति ये व्यक्तमपण्डितास्ते।।

जो लोग शठता से धर्म को सिद्ध करना चाहते है,कपट से मित्र बनाना चाहते है, सुखोपभोग भुगतते भुगतते विद्या प्राप्त करना चाहते है और कठोर भाव से नारी को समझाना चाहते है, वे वास्तव में मूर्ख ही है।
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ॐ मनोजवं मारुततुल्य वेगम् जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं
वातात्मजं वानर युथमुख्यं श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये ||

 

भावार्थ : – वह जो मन की गति से भी तेज है | जो वायु से भी ज्यादा बलशाली है जिन्होंने सभी इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की है जो बुद्धि में सबसे आगे है जो वायु के पुत्र है | जो वानरों में प्रमुख है | मैं भगवान श्री राम चन्द्र के उस भक्त ( हनुमान जी ) की शरण में जाता हूं |

🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्ति: परेषां परपीडनाय l
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ll

भावार्थ :- दुर्जनों और सत्पुरुषों का व्यवहार विपरीत होता है l दुर्जनों की विद्या विवाद के लिए, धन अहंकार के लिए और शक्ति दूसरे को पीड़ा देने के लिए होती है , जबकि सत्पुरुषों की विद्या ज्ञान के लिए, धन दान देने के लिए और शक्ति अन्य के रक्षण के लिए होती है l
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विना पुष्पं फलं वृक्षो विशालो$पि निरर्थक:।
विवेकज्ञानवैराग्यभक्तिहीनो नरस्तथा॥

भावार्थ : वृक्ष कितना ही बड़ा क्यों न हो जाए, यदि उसमें फूल और फल न हों तो उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है। इस प्रकार विवेक, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के बिना मनुष्य का जीवन व्यर्थ है।
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सुशीलो मातृपुण्येन,पितृपुण्येन चातुरः।
औदार्यं वंशपुण्येन,आत्मपुण्येन भाग्यवान ।।

भावार्थ :- कोई भी इंसान अपनी माता के पुण्य से सुशील होता है, पिता के पुण्य से चतुर होता है, वंश के पुण्य से उदार होता है और अपने स्वयं के पुण्य होते हैं, तभी वो भाग्यवान होता है। अतः भाग्य प्राप्ति के लिए सत्कर्म आवश्यक है।
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तपश्च दानं च शमो दमश्च
ह्रीरार्जवं सर्वभूतानुकम्पा।
स्वर्गस्य लोकस्य वदन्ति सन्तो
द्वाराणि सप्तेव महान्ति पुंसाम्।।
नश्यन्ति मानेन तमोsभिभूताः
पुंसः सदैवेति वदन्ति सन्तः।।
(महाभारत, आदि पर्व – ९०/२२)

अर्थात् 👉 साधु पुरुषों ने तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता तथा प्राणियों पर दया – ये सात स्वर्ग के महान द्वार बताए हैं। ये महान द्वार पुरुष के अभिमान रूपी तम से आच्छादित होने पर नष्ट हो जाते हैं, ऐसा सन्त पुरुषों का कथन है।
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कलातीत-कल्याण-कल्पांतकारी, सदा सज्जनानन्द दातापुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद-प्रसीद प्रभो मन्माथारी॥
आप (सोलह) कलाओं से पृथक, कल्याणकारी, कल्पचक्र के नियन्ता, सज्जनों को आनन्द प्रदान करने वाले, सत, चित, आनन्द स्वरूप त्रिपुरारी हैं। हे प्रभु! आप मुझ पर प्रसन्न हों,प्रसन्न हों।
🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत,
ययास्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेदुषतीं पापलोक्याम्॥

भावार्थः- सदैव प्रयास रहे कि दूसरों के मर्म को चोट पहुंचाने वाली, चुभने वाली, हीन व्यवहार से वश में करने वाली, उद्विग्न करने या ताप पहुंचाने वाली, पापी जनों के आचरण वाली बोली… कभी भी नही बोलनी चाहिए।    🙏🌹राधे राधे 🌹🙏 www.ddivinemart.com

 

सत्येनोत्पद्यते धर्मो दयादानेन वर्धते ।
क्षमायां स्थाप्यते धर्मो क्रोधलोभा द्विनश्यति ॥

धर्म सत्य से उत्पन्न होता है, दया और दान से बढता है, क्षमा से स्थिर होता है, और क्रोध एवं लोभ से नष्ट होता है।🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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रूद्राष्टकं इदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठंति नरा भक्त्या तेषां शम्भु प्रसीदति॥

ब्राह्मण द्वारा कहा गया रुद्राष्टक भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए है। जो व्यक्ति श्रद्धा भक्ति से इसका पाठ करते हैं, उन पर शिव सदैव प्रसन्न रहते हैं।
🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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भवत्यरूपोsपि हि दर्शनीयःस्वलङ्कृतः श्रेष्ठतमैर्गुणैः स्वैः।दोषैः परीतो मालिनीकरैस्तु सुदर्शनीयोsपि विरूप एव।।(सौन्दरनन्द – १८/३४)

अर्थात् 👉 अपने श्रेष्ठ गुणों से अलंकृत होकर कुरूप मनुष्य भी दर्शनीय हो जाता है, किन्तु गन्दे दोषों से व्याप्त होकर रूपवान मनुष्य भी कुरूप हो जाता है।
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मध्विव मन्यते बालो यावत् पापं न पच्यते।
यदा च पच्यते पापं दु:खं चाथ निगच्छति।।

भावार्थ :- यहाँ पर पाप का फल किस तरह से मिलता है उसका निरूपण किया है कहते है कि जब तक पाप संपूर्ण रूप से फलित नही होता, अर्थात् जब तक पाप का घडा भर नहीं जाता, तब तक वह पाप कर्म मीठा लगता है। किंतु पूर्ण रूप से फलित होने के पश्चात् , पाप के घडे के भर जाने के बाद मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पडते हैं।

🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ॥ ५/१॥

भावार्थ: जाति-द्वय (क्षत्रिय और वैश्य) के लिए गुरु अग्नि है। ब्राह्मण (वेदों के अध्ययन-अध्यापन में निमग्न व्यक्ति) चारों वर्णों का गुरु है। स्त्रियों के लिए गुरु पति है और अभ्यागत (अतिथि) सबके लिए गुरु के समान है।
🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।1।।

यदि शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शीलेन भार्या कमलेन तोयम्।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः शमेन विद्या नगरी जनेन ॥

भावार्थ – जैसे दूध के बिना गाय, पुष्प बिना लता, चरित्र के बिना भार्या, कमल बिना जल, शांति के बिना विद्या, और लोग बगैर नगर शोभा नहीं देते, वैसे ही गुरु बिना शिष्य शोभा नहीं देता।
🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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न कर्मणा लभ्यते चिन्तया वा
नाप्यस्ति दाता पुरुषस्य कश्चित्।
पर्याययोगाद्विहितं विधात्रा
कालेन सर्वं लभते मनुष्यः।।
(महाभारत, शान्तिपर्व – २५/५)

अर्थात् 👉 हे राजन्! न तो कोई कर्म करने से नष्ट हुई वस्तु मिल सकती है, न चिन्ता से ही। कोई ऐसा दाता भी नहीं है जो मनुष्य को उसकी विनष्ट वस्तु दे दे। विधाता के विधानानुसार मनुष्य बारी-बारी से समय पर सबकुछ प्राप्त कर लेता है।
🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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गुणेषु क्रियतां यत्न: किमाटोपै: प्रयोजनम् |
विक्रीयन्ते न घण्टाभि: गाव: क्षीरविवर्जिता: ||

स्वयं मे अच्छे गुणों की वृद्धि करनी चहिए| दिखावा करके लाभ नही होता. दूध न देने वाली गाय उसके गले मे लटकी हुअी घंटी बजाने से बेची नही जा सकती
🙏🌹राधे राधे 🌹🙏
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हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृत:।
अनिच्छापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावक:।।

भावार्थ : आग को जान कर छूएं या अनजाने में उसका काम ही है जलाना……. !
5वैसे ही अनिच्छा से लिया गया भगवान् का नाम भी सभी पापों का नाश कर देता है और कल्याणकारी होता है l
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अतिमानादतिक्रोधात्स्नेहाद्वा यदि वा भयात् ।
उद्बध्नीयात्स्त्री पुमान्वा गतिरेषा विधीयते ।।
पूयशोणितसंपूर्णे त्वन्धे तमसि मज्जति ।
षष्ठीर्वर्षसहस्राणि नरकं प्रतिपद्यते ।।
( पराशर ४/ १–२)

आत्म हत्या करने वाला मनुष्य ६० हजार वर्ष तक अंधतामिस्र नरक में वास करता है ।अतः यह ग़लती कभी न करें।
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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः !
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति !!

अर्थ* : *मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य है. मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र परिश्रम होता है

क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं रहता.।

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सर्वाबाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्दैरिविनाशनम्।।
भावार्थ: शरण में आए हुए दीन दुखियों एवं पीडि़तों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सब की पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी!
आपको नमस्कार है। हे देवी भगवती आप सभी रोगों को हरकर हमें स्वास्थ्य लाभ प्रदान करें और हमारे सभी कार्य सिद्ध करें

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अष्टौ गुणा: पुरुषं दीपयन्ति, प्रज्ञा कौल्यं च दम: श्रुतं च |
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च,दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ||
निम्नलिखित आठ गुणों से मनुष्य की बहुत प्रशंसा होती है:- (१) बुद्धि (२) कुलीनता (३) मन का संयम (४)ज्ञान (५)बहादुरी (६)कम बोलना
(७) यथाशक्ति दान देना और (८)दूसरे के उपकार को याद रखना |

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एक: पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजन:!
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते!!
अर्थ: मनुष्य अकेला पाप करता हैं, और बहुत से लोग उसका आनंद उठाते हैं! आनंद उठाने वाले तो बच जाते हैं;
पर पाप करने वाला दोष का भागी होता हैं!!

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भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात अपि गरीयसी।।
अर्थ – भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं, माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।

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अनाहूत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषेते।
अविश्चस्ते विश्चसिति मूढचेता नराधम: ॥
मूर्ख व्यक्ति बिना आज्ञा लिए किसी के भी कक्ष में प्रवेश करता है, सलाह माँगे बिना अपनी बात थोपता है
तथा अविश्वसनीय व्यक्ति पर भरोसा करता है ।

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श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारैर्न तु चन्दनेन।।
कानों में कुंडल पहन लेना अर्थात अपनें आप को आभूषणों से सुसज्जित कर लेने से आपकी शोभा नहीं बढ़ती बल्कि ज्ञान
की बातें सुनने से होती है। हाथों की सुन्दरता कंगन पहनने से नहीं होती बल्कि दान देने से होती है। एक सज्जन का शरीर
भी चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों के हित में किये गये कार्यों से शोभायमान होता है।

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अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।
अर्थ- किसी का भी अनादर कर देना अर्थात कठोर वचन बोलकर देना, मुंह फेर कर देना, देरी से देना और देनें के
पश्चाताप होना यह सभी पांच क्रियाएं दान को दूषित कर देती है।

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जरा रूपं हरति, धैर्यमाशा, मॄत्यु:प्राणान् , धर्मचर्यामसूया ।
क्रोध: श्रियं , शीलमनार्यसेवा , ह्रियं काम: , सर्वमेवाभिमान: ॥
वॄद्धत्व से रूप का हरण होता है , आशासे ह्मतॄष्णा से धैर्यका , मॄत्यु से प्राण का हरण होता है| मत्सर से धर्माचरण का, क्रोध से सम्पत्ति
का तथा दुष्टों की सेवा करने से शील का नाश होता है। कामवासना से लज्जा का तथा अभिमान से सभी अच्छी चीजों का अन्त होता है ।

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कार्य्येषु मन्त्री, करणेषु दासी, भोज्येषु माता, रमणेषु रम्भाः l
धर्मानुकूला क्षमाया धरित्री,भार्या च षड्गुण्यवती च दुर्लभा॥
भावार्थ– कार्य में मंत्री के समान सलाह देने वाली, सेवादि में दासी के समान सेवाभाव युक्त, भोजन कराने में माता के समान पथ्य
देने वाली, आनन्दोपभोग के लिए रम्भा के समान सहयोगी, धर्म और क्षमा को धारण करने में पृथ्वी के समान-क्षमाशील ऐसे छः गुणों से
युक्त स्त्री सचमुच इस विश्व का एक दुर्लभ रत्न हैं ।

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परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः।
अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम्।।
अर्थ-यदि कोई अपरिचित व्यक्ति आपकी सहायता करता है, तो उस व्यक्ति को अपनें घर के सदस्य की तरह सम्मान दें और यदि
आपके घर का सदस्य ही आपको नुकसान देना शुरू कर दे तो उसे बिलकुल भी महत्व नहीं देना चाहिए | जिस प्रकार शरीर के किसी
अंग में चोट लग जानें के कारण हमें बहुत तकलीफ पहुंचती है जबकि जंगल में उगी हुई औषधि हमारे लिए बहुत ही लाभकारी होती है |

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अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद् गजभूषणं।
चातुर्यम् भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणं।।
अर्थ-एक घोड़े की शोभा उसकी तेज दौड़ने की गति से होती है और हाथी की शोभा उसकी मदमस्त चाल से होती है। एक स्त्री की शोभा
कार्यों में दक्षता के कारण और पुरुषों की उनकी उद्योगशीलता के कारण होती है।

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अश्रुतश्च समुत्रद्धो दरिद्रश्य महामनाः।
अर्थांश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥
बिना पढ़े ही स्वयं को ज्ञानी समझकर अहंकार करने वाला, दरिद्र होकर भी बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाने वाला तथा बैठे-बिठाए धन
पाने की कामना करने वाला व्यक्ति मूर्ख कहलाता है ।

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द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो विलशयानिव।
राजानां चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।।
(महाभारत, शान्ति पर्व – ५७/३)
अर्थात – बिल में रहनेवाले चूहों को जैसे सांप निगल जाता है, उसी प्रकार दूसरों से लड़ाई न करनेवाले राजा तथा
विद्याध्ययन आदि के लिए घर छोड़कर अन्यत्र न जानेवाले ब्राह्मण को पृथ्वी निगल जाती है।

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चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च
भृत्या: गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा: सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥
मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं। कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है. राज्य , वैभव आदि सब तभी तक है , जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत : किस पर गर्व कर रहे हो ?

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रक्ष रक्ष गणाध्यक्ष रक्ष त्रैलोक्यरक्षकं।
भक्तानामभयं कर्ता त्राता भव भवार्णवात्॥
हे गणाध्यक्ष रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिये । हे तीनों लोकों के रक्षक! रक्षा कीजिए; आप भक्तों को अभय प्रदान करनेवाले हैं,
भवसागर से मेरी रक्षा कीजिये

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दूरे पूर्णेन वसति दूर ऊनेन हीयते । (अथर्व० १०।८।१५)
पूर्ण विद्वानों, योगियों, महात्माओं के साथ रहने से मनुष्य उन्नत होता है और आचारहीन
लोगों के सम्पर्क में रहने से गिर जाता है, पतित हो जाता है।

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यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है,
समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।

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उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये।
पयः पानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम्।।
मूर्खों को समझाना उन्हे क्रुद्ध ही करता है शान्त नही।सांपों के दूध पीने से केवल उनका विष ही बढता है।

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भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥
भावार्थ:-श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन
अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥

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नैव पश्यति जन्माधः कामान्धो नैव पश्यति ।
मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दोषं न पश्यति ।।
।।चा o नी o।।
जो जन्म से अंध है वो देख नहीं सकते. उसी तरह जो वासना के अधीन है वो भी देख नहीं सकते. अहंकारी व्यक्ति को
कभी ऐसा नहीं लगता की वह कुछ बुरा कर रहा है. और जो पैसे के पीछे पड़े है उनको उनके कर्मो में कोई पाप दिखाई नहीं देता

🙏🌹राधे राधे 🌹🙏

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“गंगादि तीर्थ वर्येषु दुष्टैरेवावृतेष्विह।
तिरोहिताधिदेवेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥”.
हे प्रभु! गंगा आदि प्रमुख नदियों पर स्थित तीर्थों का भी दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों ने अतिक्रमण कर लिया हैं और सभी देवस्थान
लुप्त होते जा रहें हैं, इसलिए केवल आप ही मेरे आश्रय हों।

🙏🌹राधे राधे 🌹🙏

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कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति ।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् ॥
अर्थ- जब तक किसी व्यक्ति का कार्य पूरा नहीं होता है तब तक वह दूसरों की प्रशंसा करते हैं और जैसे ही कार्य पूरा हो जाता है,
लोग दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हैं | यह ठीक उसी तरह होता है जैसे-नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रह जाता है |

🙏🌹राधे राधे 🌹🙏

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अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ॥
अर्थ-बिना बुलाये ही किसी भी स्थान पर चले जाना और बिना कुछ पूछें बोलना, जिन पर विश्वास नहीं किया जा सकता,
ऐसे लोगो पर विश्वास करना, यह सभी मूर्ख और बुरे लोगों के लक्षण हैं |

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वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥
भावार्थ:-ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है।

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सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
अर्थ- किसी भी कार्य को आवेश में आ कर या बिना सोचे समझे नहीं करना चाहिए, क्योंकि विवेक का शून्य होना
विपत्तियों को बुलावा देना है | जबकि जो व्यक्ति सोंच-समझकर कार्य करता है, ऐसे व्यक्तियों को माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।

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दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत:।

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स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा ।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥
किसी भी व्यक्ति का जो मूल स्वभाव होता है, वह कभी नही बदलता है, चाहे आप उसे कितना भी समझाएं और किनती भी सलाह दे |
यह ठीक उसी प्रकार से होता है जैसे पानी को आग में उबालनें पर वह गर्म हो जाता है और खौलनें लगता है परन्तु कुछ समय पश्चात वह अपनी पुरानी अवस्था में आ जाता है |

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नमामी शमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं, ब्रह्म वेदस्वरूपम्।
निजं, निर्गुणं, निर्विकल्पं, निरीहं चिदाकाशं आकाशवासं भजे$हं।।
हे मोक्ष रूप (आप जो) सर्व व्यापक हैं, ब्रह्म और वेद् स्वरूप हैं, माया, गुण, भेद, इच्छा से रहित हैं, चेतन, आकाश रूप एवं आकाश को
ही वस्त्र रूप को धारण करने वाले हैं, आपको प्रणाम करता हूँ।

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आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म ।
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ॥
आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है ।

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चिता चिंतये, चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी !
तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः!!
शास्त्र कहते हैं कि चिंता चिता से भी बढ़कर है चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला,
चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है !!

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उक्त्वानृत भवेधत्र प्राणिनां प्राणरक्षणम्।
अनृतं तत्र सत्यं स्यात्सत्यमप्यनृतं भवेत।।
(पद्मपुराण.)
झूठ बोलने से जहां प्राणियों की प्राण रक्षा हो सकती हो वहां झूठ भी सच होगा और सच भी झूठ।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।
भावार्थ : जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा
पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।

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न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥
अर्थ- विद्या एक ऐसी चीज है जिसे न ही कोई चोर चुरा सकता है, न ही राजा छीन सकता है और न ही भाइयों के बीच बंटवारा
हो सकता है और यह एक ऐसा धन है जो सदेव खर्च करनें पर बढ़ता है | यह विद्या रूपी धन, सभी धनों से श्रेष्ठ है |

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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
–श्रीमद्भगवद्गीता
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। योग के द्वारा सिद्ध हुआ पुरुष उस ज्ञान को उपयुक्त समय आने
पर अपने आप अपने भीतर प्राप्त करता है । (उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥)

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अलक्ष्मीराविशत्येनं शयानमलसं नरम्।
निःसंशयं फलं लब्ध्वा दक्षो भूतिमुपाश्नुते।।
(महाभारत, वन पर्व – 32/42)
अर्थात – आलसी और अधिक सोने वाले मनुष्य को दरिद्रता प्राप्त होती है, तथा कार्यकुशल मनुष्य निश्चय ही
अभीष्ट फल प्राप्त कर ऐश्वर्य का उपभोग करता है।

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सर्वं भूत हितं प्रोक्तं , इति सत्यम “
सभी प्राणियों का जिसमे हित हो, ऐसा वचन बोलना ही सत्य है। जिससे लोक कल्याण हो वही सत्कर्म है।

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यदि नाम जन्म भूयो भवति मदीयै: पुनर्दोषै:।
तस्मिंस्तस्मिञ्जन्मनि भवे भवेन्मेऽक्षया भक्ति:।।
(महाभारत,अनुशासनपर्व १४/१९१)
यदि मेरे दोषों से मुझे बारंबार इस जगत में जन्म लेना पड़े तो मेरी यही इच्छा है कि उस-उस प्रत्येक जन्म में भगवान् 

  शिव में मेरी अक्षय भक्ति हो।

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न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा,
नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥

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जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे।
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥
किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेज़ते समय सेवक की पहचान होती है । दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय
मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है ।

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अतिमानोअतिवादश्च तथात्यागो नराधिप।
क्रोधश्चात्मविधित्सा च मित्रद्रोहश्च तानि षट्!
एत एवासयस्तीक्ष्णा: कृन्तन्यायूंषि देहिनाम्!
एतानि मानवान् घ्नन्ति न मृत्युर्भद्रमस्तु ते!”
(महाभारत, उद्योगपर्व 37/10-11)
अत्यंत अभिमान, अधिक बोलना, त्याग का अभाव, क्रोध, स्वार्थ, मित्रद्रोह- ये 6 तीखी तलवारें मनुष्य की आयु को कम करती हैं।
ये ही मनुष्यों का वध करती हैं।

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शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्रं स्नानमाचरेत्।
लक्षं विहाय दातव्यं कोटिं त्यक्त्वा हरिं भजेत्।।
सौ कार्य को छोड़कर भोजन करना चाहिए। हजारों कार्य को छोड़कर स्नान करना चाहिए। लाखों कार्य को छोड़कर दान देना चाहिए।
और करोड़ों कार्य को छोड़कर परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए।

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हन्त! मातरि भवन्ति सुतानां मन्तव:किल सुतेषु न मातुः।चैतन्यचन्द्रोदय,१.६१.
माता के प्रति पुत्रों का अपराध हो सकता है,माता का पुत्रों के प्रति नही।

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पुत्रो हि हृदयम्। तैत्तिरीय ब्राह्मण,२.२.७.४.
पुत्र (माता-पिता)का हृदय ही है।

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य….मिथ्या प्रतिज्ञां कुरुते को नृशंसतरसगततः।
बाल्मीकि रामायण,४,३४,८
जो झूठी प्रतिज्ञा करता है उससे बढकर क्रूर और कौन है?

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हरि अनन्त हरि कथा अनन् ताकहहि सुनहि बहुविधि सब संता
अर्थ : प्रभु श्री राम भी अंनत हो और उनकी कीर्ति भी अपरम्पार है ,इसका कोई अंत नही है।बहुत सारे संतो ने
प्रभु की कीर्ति का अलग अलग वर्णन किया है।

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सानन्दं सदनं सुताश्च सुधिय: कान्ता प्रियभाषिणी l
सन्मित्रं सधनं स्वयोषिति रति: चाज्ञापरा: सेवका: ll
आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मिष्ठान्नपानं गृहे l
साधो: संगमुपासते हि सततं धन्यो गृहस्थाश्रम: ll
भावार्थ — घर में सभी आनन्द हों, पुत्र बुद्धिमान् हो, पत्नी प्रिय बोलने वाली हो, अच्छे मित्र हो, धन हो, पति – पत्नी में प्रेम हो, सेवक आज्ञाकारी
हो, जहां अतिथि सत्कार हो, सदा देव – पूजन होता हो, प्रतिदिन स्वादानुसार भोजन बनता हो और सत्पुरुषों का हमेशा संग होता हो — ऐसा गृहस्थाश्रम धन्य है

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अनन्तविभायैव परेषां पररुपिणे ।

शिवपुत्राय देवाय गुहाग्रजाय ते नमः ॥
आपका वैभव अनन्त है, आप परात्पर हैं, भगवान् शिव के पुत्र तथा स्कन्द के बड़े भाई हैं, आप देव को नमस्कार है ।
श्रीमद् भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक-47🌹

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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
भावार्थ : कर्म करना तुम्हारा अधिकार है, फल की इच्छा करना तुम्हारा अधिकार नहीं। अर्थात फल की इच्छा के
बिना कर्म करना, क्योंकि मेरा काम फल देना है।

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स्वाच्छन्द्यफलं बाल्यं तारुण्यं रुचिरसुरतभोगफलम्।
स्थविरत्वमुपशमफलं परहितसम्पादनं च जन्मफलम्।।
कुट्टिनीमत्७२४.
बचपन का फल स्वच्छन्दता है,जवानी का फलानन्ददायक सम्भोग है,वृद्धावस्था का फल शान्ति है
और जन्म लेने का फल दूसरे का हित करना है।

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धॄति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
धर्म के दस लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, आत्म-नियंत्रण, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रिय-संयम,
बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना॥

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न कालस्यास्ति बन्धुत्वं न हेतुर्न पराक्रमः।
न मित्रज्ञातिसम्बन्धः कारणं नात्मनो वशः॥
(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, २५/७ )
अर्थात् – काल का किसी के साथ बन्धुत्व, मित्रता अथवा जाति बिरादरी का सम्बन्ध नहीं है। उसे वश में करने का कोई
उपाय नहीं है और उस पर किसी का पराक्रम नही चल सकता। कारणस्वरूप काल जीव के भी वश में नहीं है।

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समानशीलव्यसनेषु सख्यम्।
पंचतन्त्र१.२८५.
एक से स्वभाव और आदत वालों मे मित्रता हो जाती है।

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अपां प्रवाहो गांगोऽपि समुद्रं प्राप्य तद्रसः।
भवत्यवश्यं तद्विद्वान् नाश्रयेदशुभात्मकम्॥
(कामन्दकीयनीतिसार)
अर्थात – गंगा के जल का प्रवाह भी समुद्र को प्राप्त कर तद्रस हो जाता है, इसीलिए विद्वान व्यक्ति को
अशुभ मन वाले व्यक्तियों का साथ नहीं करना चाहिए

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अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च ।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
जो व्यक्ति शत्रु से दोस्ती करता तथा मित्र और शुभचिंतकों को दुःख देता है, उनसे ईर्ष्या-द्वेष करता है ।
सदैव बुरे कार्यों में लिप्त रहता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

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रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम् ।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्यु: करिष्यति ।।
अर्थात् जो दु:ख को दूर करने के कारण रुद्र कहलाते हैं, जीवरूपी पशुओं का पालन करने से पशुपति, स्थिर होने से स्थाणु,
गले में नीला चिह्न धारण करने से नीलकण्ठ और भगवती उमा के स्वामी होने से उमापति नाम धारण करते हैं, उन भगवान
शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

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विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय, लम्बोदराय सकलाय जगत् हिताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञभूषिताय, गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥
विघ्नेश्वर, वर देने वाले, देवताओं को प्रिय, लम्बोदर, कलाओं से परिपूर्ण, जगत् का हित करनेवाले, गज के समान
मुखवाले और वेद तथा यज्ञ से विभूषित पार्वतीपुत्र को नमस्कार है। हे गणनाथ! आपको नमस्कार है।

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मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत्।
मन्त्रवद् रक्षयेद् गूढं – कार्ये चापि नियोजयेत् ॥
मन में सोचे हुए कार्य को मुंह से बाहर नहीं निकालना चाहिए । मन्त्र के समान गुप्त रखकर उसकी
रक्षा करनी चाहिए।गुप्त रखकर ही उस काम को करना भी चाहिए..!!

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यद्यत्संद्दश्यते लोके सर्वं तत्कर्मसम्भवम्।
सर्वां कर्मांनुसारेण जन्तुर्भोगान्भुनक्ति वै।।
अर्थ – लोगों के बीच जो सुख या दुःख देखा जाता है कर्म से पैदा होता है। सभी प्राणी अपने पिछले
कर्मों के अनुसार आनंद लेते हैं या पीड़ित होते हैं।

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यावन्न हिंस्रः समुपैति कालः शमाय तावत्कुरु सौम्यबुद्धिम्।
सर्वास्ववस्थास्विह वर्तमानम् सर्वाभिसारेण निहन्ति मृत्युः।।
अर्थात् 👉 जब तक घातक काल समीप नहीं आता, तब तक बुद्धि को शान्ति में लगाना चाहिए क्योंकि
मृत्यु इस संसार में सभी अवस्थाओं में रहनेवालों की सभी प्रकार से हत्या करती है।

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सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।
अर्थ – हमें अचानक आवेश या जोश में आकर कोई काम नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेक हीनता सबसे बड़ी विपतियों का
कारण होती है। इसके विपरीत जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है। गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी

स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।

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दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसंश्रय: ॥
मनुष्य जन्म, मुक्ति की इच्छा तथा महापुरूषों का सहवास यह तीन चीजें परमेश्वर की कॄपा पर निर्भर रहते है ।

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याति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यञ्चोपि सहायताम्।
अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोपि विमुञ्चति।।
अनर्घराघव,१.४
न्याय मार्ग पर चलने वाले की पक्षी भी सहायता करते हैं। जो कुमार्ग पर चलता है उसका भाई भी उसका साथ छोङ देता है।

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नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने ।
विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ॥
सिंह को वन में न राज्यभिषेक किया जाता है और न ही संस्कार , अपने विक्रम अर्थात पराक्रम और गुण से
वह स्वतः ही मृगेंद्र पद को प्राप्त कर लेता है।

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अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम् ॥
जो भगवान् शंकर संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवन्तिकापुरी उज्जैन में अवतार धारण किए हैं, अकाल मृत्यु से
बचने के लिए उन देवों के भी देव महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

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अस्नातस्त क्रियाः सर्वा भवन्ति विफला यतः ।
तस्मात्यातश्चरेत्स्नानं नित्यमेव दिने दिने ॥
-देवीभागवत रुद्राक्ष माहात्म्य/
प्रातः स्नान के न करने से दिन भर के सभी कर्म फलहीन हो जाते हैं, इसलिए प्रातः स्नान प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए।

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या अरण्ये रोदनात्सिद्धिर्या सिद्धि क्लीबकोबनात्।
कृतघ्ने सेवनात् सिद्धि सासिद्धि कूटभाषणात्।।
जंगल मे रोने से,नपुंसक को क्रोधित करने से,कृतघ्न की सेवा करने से जो सिद्धि प्राप्त होती है वही असत्य भाषण से होती है।

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दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्र्य दु:ख भयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥
हे माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याण
मयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दु:ख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवि आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त
सब का उपकार करने के लिये सदा मचलता रहता हो।

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दुर्गा सप्तशश्लोकी ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥१॥
वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं ।

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सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥३॥
नारायणी ! आप सब प्रकार का मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी हैं, आप ही कल्याणदायिनी शिवा हैं ।
आप सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली गौरी हैं । आपको नमस्कार है ।

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शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥
शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।

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सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि ।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम् ॥७॥
सर्वेश्वरि ! आप ऐसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करें और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहें ।

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रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥
देवि! तुम्हारे प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो।
जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं।

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प्रजाभ्यः पुण्यपापानां राजा षश्ठांशमुद्धरेत्।
शिष्याद् गुरुः स्त्रियो भर्त्ता पिता पुत्रात्तथैव च।।
भावार्थ- राजा प्रजा के, गुरु शिष्य के , पति पत्नी के तथा पिता पुत्र के पुण्य -पाप का छठा अंश प्राप्त कर लेता है ।
अतः पाप कर्म से बचना चाहिए ।

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सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।
अर्थ – हमें अचानक आवेश या जोश में आकर कोई काम नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेक हीनता सबसे बड़ी विपतियों का कारण होती है।
इसके विपरीत जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है। गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।

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किमिष्टमन्नं खरसूकराणां किं रत्नहारो मृगपक्षिणां च।
अन्धस्य दीपो बधिरस्य गीतंमूर्खस्य किं शास्त्रकथाप्रसङ्गः॥
गधा, सूअर को उत्तम अन्न से क्या मतलब है? पशु या पक्षी को रत्नों के हार से क्या मतलब है? अंधे को दिये का और गूँगे को संगीत
से क्या मतलब? उसी तरह मूर्ख मनुष्य को शास्त्रों की बाते सुनाने का क्या मतलब रह जाता है?….

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इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत्पण्डितो नरः।
देशकालः बलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्॥
बगुले के समान इंद्रियों को वश में करके देश, काल एवं बल को जानकर विद्वान अपना कार्य सफल करें ।

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अर्थनाश मनस्तापं गृहिण्याश्चरितानि च।
नीचं वाक्यं चापमानं मतिमान्न प्रकाशयेत्॥
धन का नाश हो जाने पर, मन में दुखः होने पर, पत्नी के चाल – चलन का पता लगने पर, नीच व्यक्ति से कुछ घटिया बातें सुन लेने
पर तथा स्वयं कहीं से अपमानित होने पर अपने मन की बातों को किसी को नहीं बताना चाहिए । यही समझदारी है ।

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धन धान्य प्रयोगेषु विद्या संग्रहेषु च !
आहारे व्यवहारे च त्यक्त लज्जा सुखी भवेत् ।।
“व्यक्ति को धन – धान्य के प्रयोग में, विद्याध्ययन में, भोजन में तथा व्यवहार इत्यादि में लज्जा त्याग देनी चाहिए, तभी वह सुखी रह सकता है।”

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पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम्।
स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसंदूषणानि षट्॥१३॥
मद्यपान, दुर्जनसंग,पति से वियोग, घूमना, सोना, दूसरे के घर रहना ये छः भांति के स्त्रियों में दूषण होते हैं ।

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अकुर्वन्तोऽपि पापानि शुचय: पापसंश्रयात्।
परपापैर्विनश्यन्ति मत्स्या: नागह्रदे यथा।।
अर्थात 👉 शुद्ध आचार-व्यवहार वाले मनुष्य यदि पापियों के संपर्क में आ जाते हैं तो वे उनके बुरे कार्यों से स्वयं कोई अनुचित कार्य न
करने पर भी उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे सांप वाले तालाब की मछलियां नष्ट हो जाती है।

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“दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः ।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ॥
अर्थ : दीप का प्रकाश परब्रह्म स्वरूप है । दीप की ज्योति जगत् का दुख दूर करनेवाला परमेश्वर है ।
दीप मेरे पाप दूर करे । हे दीपज्योति, आपको नमस्कार करता हूं ।

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कर्म लोकविरुद्धं तु कुर्वाणं क्षणदाचर।
तीक्ष्णं सर्वजनो हन्ति सर्पं दुष्टमिवागतम्।।
अर्थात् 👉 हे निशाचर ! जो लोक-विरोधी कठोर कर्म करनेवाला होता है उसे सभी लोग सामने आए हुए दुष्ट सर्प की भांति मारते हैं

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अतिमात्रभासुरत्वं पुष्यति भानोः परिग्रहादनलः।
अधिगच्छति महिमानं चन्द्रोsपि निशापरिगृहीत:।।
जैसे सूर्य की कृपा से अग्नि में बहुत चमक आ जाती है वैसे ही रात्रि की कृपा पाकर चन्द्रमा में भी बहुत चमक आ जाती है।
(तात्पर्य यह है कि चमक पाने के लिए कृपा आवश्यक है।)

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दर्शने स्पर्शणे वापि, श्रवणे भाषणेऽपि वा।
यत्र द्रवत्यन्तरङ्गं, स स्नेह इति कथ्यते॥
यदि किसी को देखने से, स्पर्श करने से, किसी की बात सुनने से या किसी से बात करने से हृदय द्रवित हो तो इसे स्नेह कहा जाता है।

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संप्राप्तं कार्तिकं दृष्ट्वा परान्नं यस्तु वर्जयेत् ।
दिनेदिनेऽतिकृच्छ्रस्य फलं प्राप्नोत्ययत्नतः ।।
स्कन्दपुराण,
‘‘जो कार्तिक मास में पराये अन्न को सर्वथा त्याग देता है, वह अतिकृच्छ्र यज्ञ का फल प्राप्त करता है ।‘‘

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घृतेन दीपं यो दद्याच्छङ्करायाथ विष्णवे।
स मुक्तः सर्वपापेभ्यो गङ्गास्नान फलं लभेत् ।। नारदपुराण,
“जो भगवान् शिव अथवा विष्णु को घी का दीपक देता है, वह सब पापों से मुक्त हो गङ्गा-स्नान का फल पाता है।”

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निर्गुणस्य हतं रूप। दु:शीलस्य हतं कुलम्।
असिद्धस्य हता विद्या । अभोगस्य हतं धनम् ।।
गुणहीन का रूप नष्ट होता है (व्यक्ति कितनी भी सुंदर क्यूँ न हो अगर वह गुणहीन है, तो उसका रूप व्यर्थ है),दुराचारी का कुल नष्ट होता है
(अपने व्यवहारसे वह कुल को बदनाम करता है),अयोग्य व्यक्ति की विद्या नष्ट होती है और जिसका उपभोग न लिया जाए वह धन नष्ट होता है।।

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कुपितोऽपि गुणायैव गुणवान्भवति ध्रुवम्।
स्वभावमधुरं क्षीरं क्वथितं हि रसोत्तरम्॥
गुणवान् व्यक्ति क्रोधित होता है, तो वह भी किसी (अच्छे) गुण के लिए ही होता है। स्वभाव से मधुर दूध, उबालने से और मधुर हो जाता हैl

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क्षमया दयया प्रेम्णा सूनृतेनार्जवेन च ।
वशीकुर्याज्जगत्सर्वं विनयेन च सेवया ॥
संसार को क्षमा, प्रेम, सच्चाई, सीधापन, विनय व सेवा से वशमें करना चाहिए।

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जरा रुपं हरति धैर्य माशा मृत्युः प्राणान् धर्मचर्यामसूया।
कामो ह्रियं वृत्तमनार्यसेवा क्रोधः श्रियं सर्वमेवाभिमानः॥
बुढ़ापा सुंदरता का नाश कर देता है| आशा धीरज का, ईर्ष्या धर्म -निष्ठा का, काम लाज-शर्म का, दुर्जनों का साथ सदाचार का,
क्रोध धन का तथा अहंकार सभी का नाश कर देता है।

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उत्तमस्यापि वर्णस्य नीचोऽपि गृहमागतः ।
पूजनीयो यथायोग्यं सर्वदेवमयोऽतिथिः ॥
उत्तम वर्ण (ब्राह्मण आदि) के घर में यदि नीच वर्ण (चाण्डालादिक) भी अतिथि होकर आये तो उसका भी यथायोग्य
सत्कार करना चाहिये, क्यों कि अतिथि सब देवताओंका रूप है

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षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता॥
भावार्थ:- संसार में उन्नति के अभिलाषी व्यक्तियों को नींद, तंद्रा(ऊँघ), भय, क्रोध, आलस्य तथा देर से काम करने की
आदत-इन छह दुर्गुणों को सदा के लिए त्याग देना चाहिए॥

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अहो दुर्जनसंसर्गात् मानहानिः पदे पदे।
पावको लौहसंगेन मुद्गरैरभिताड्यते॥
दुष्ट के संग रहने पर कदम कदम पर अपमान होता है। पावक (अग्नि) जब लोहे के साथ होता है तो उसे घन से पीटा जाता है।

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अप्रशस्तानि कार्याणि यो मोहादनुतिष्ठति।
स तेषां विपरिभ्रंशाद् भ्रंश्यते जीवितादपि॥
जो मोह -माया में पड़कर अन्याय का साथ देता है, वह अपने जीवन को नरक-तुल्य बना लेता है।

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पद्माकरं दिनकरो विकचीकरोति चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्
नाभ्यर्थितो जलधरोSपि जलं ददाति सन्तः स्वयं परहिते सुकृताभियोगा:
जैसे बिना किसी के द्वारा प्रार्थना किये ही सूर्य कमल-समूह को विकसित करता है,जैसे चन्द्रमा कैरव–समूह को प्रफुल्लित करता है,
तथा जिस प्रकार मेघ प्राणियों को जल देता है,उसी प्रकार महापुरुष स्वाभाविक, स्वयं ही परहित में लगे रहते हैं।

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इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः ।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः ।
धर्म की आठ विधियाँ हैं – यज्ञ , स्वाध्याय , दान , तपस्या , सत्य , क्षमा , मनोनिग्रह और अलोभ ।

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अनुगन्तुं सतां वर्त्म, कृत्स्नं यदि न शक्यते|
स्वल्पमप्यनुगन्तव्यं, मार्गस्थो नावसीदति||
यदि श्रेष्ठ पुरुषों के मार्ग पर पूर्णरूप से न चला जा सके, तो थोड़ा ही चल लेना चाहिए|
इस प्रकार मार्ग के मध्य में भी पहुंचा हुआ व्यक्ति दुखी नहीं होता|

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मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचारा नवा वाणी मुखे मुखे॥
भिन्न-भिन्न मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न मति (विचार) होती है, भिन्न-भिन्न सरोवर में भिन्न-भिन्न प्रकार का पानी होता है, भिन्न-भिन्न
जाति के लोगों के भिन्न-भिन्न जीवनशैलियाँ (परम्परा, रीति-रिवाज) होती हैं और भिन्न-भिन्न मुखों से भिन्न-भिन्न वाणी निकलती है।

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गच्छन् शरीरविच्छेदावपि भस्मावशेषताम् ।
कर्पूरः सौरभेणेव जन्तुः ख्यात्यानुमीयते ॥
अपने शरीर का नाश होते हुए भी , भस्म की स्थिति शेष होते हुए भी , जिस प्रकार कर्पूर जल जाने के बाद भी अपना सुगंध फैलाता है,
उसी के समान जीव अपने अच्छे ख्याती के कारण जाना जाता हैं

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सद्भावेन हि तुष्यन्ति देवा: सत्पुरुषा: द्विजा: ।
इतरे खाद्यपानेन मानदानेन पण्डिता: ।।
गरूड़ पुराण अध्याय १०९ -१०
सद्भाव रखने से देव, सज्जन एवं द्विजाति संतुष्ट होते हैं। इनके सिवा साधारण लोग खाने-पीने से एवं पण्डित लोग मान सम्मान से संतुष्ट होते हैं ।

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अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्र्चरितानि च ।
वञ्चनं चापमानं च मतिमान् न प्रकाशयेत् ।।
गरुड़ पुराण अध्याय १०९-१५
जो मनुष्य बुद्धिमान है उसे अपनी संपत्ति का क्षय,मन का संताप, घर में हुआ दुश्र्चरित्र, किसी से ठगे गये हो एवं अपने
अपमान कि घटना को किसी के सामने उजागर नहीं करनी चाहिए ।

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नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितम् ।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नरा: पण्डितबुद्धय: ।।
विदुर नीति अध्याय १-२८
पण्डितो की बुद्धि रखने वाले मनुष्य दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं करते,खोयी हुई वस्तु के विषय में
शोक करना नहीं चाहते और विपत्ति में पड़कर घबराते नहीं है।

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असन्त्यागात् पापकृतामपापांस्-तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्।
शुष्केणार्दं दह्यते मिश्रभावात्-तस्मात् पापैः सह सन्धिं न कुर्य्यात्॥
दुर्जनों की संगति के कारण निरपराधी भी उन्हीं के समान दंड पाते है; जैसे सुखी लकड़ियों के साथ गीली लकडी भी जल जाती है।
इसलिए दुर्जनों के साथ मैत्री नहीं करनी चाहिए।

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धीरा: कष्टमनुप्राप्य भवन्ति विषादिन: प्रविश्य वदनं राहो: किं नादेन पुन: शशी ।।
गरूड़ पुराण अध्याय १११-२४
आपत्ति के काल में राजा को दु:की नहीं होना चाहिए, अपनी समबुद्धी प्रसन्नात्मा तथा सुख दु:ख में सम रहना चाहिए।
धैर्यवान मनुष्य कष्ट प्राप्त करके भी दु:की नहीं होते , क्यों कि राहु के मुख में प्रवेश करने के बाद क्या चन्द्रमा फिर से उदित नहीं होते ? ।

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येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म. वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में जानवर की तरह से घूमते रहते है |

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उद्योग:साहसं धैर्यं बुद्धि: शक्ति: पराक्रम: ।
षड्विधो यस्य उत्साहस्तस्य देवोऽपि शंकते ।।
गरूड़ पुराण अध्याय १११-३२
उद्योग,साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम यह जो छह प्रकार के जो साहस कहें जाते हैं, उससे सम्बन्वित जो राजा है उसे देखकर देवताओं को भी विस्मय होता है ।

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श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा।
असम्भिन्नार्यमर्यादा: पण्डिताख्यां लभते स:।।
विदुर नीति अध्याय १-३४
जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का, तथा जो शिष्ट पुरुषो की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वहीं पण्डित की पदवी पा सकता है।

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श्राद्धं पितृभ्यो न ददाति दैवतानि न चार्चति ।
सुहृन्मित्रं न लभते तमाहुर्मूढचेतसाम्।।
विदुर नीति अध्याय १-४०
जो पितृओ को श्राद्ध एवं देवताओं का पूजन नहीं करता तथा जिसे सुहृद् मित्र नहीं मिलता, उसे ‘मूढ़ चित्तवाला’ कहते हैं ।

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परं क्षिपति दोषेण वर्तमान: स्वयं तथा।
यश्च कृध्यत्यनीशान: स च मूढतमो नर: ।।
विदुर नीति अध्याय १-४२
स्वयं दोषयुक्त व्यवहार करते हुए भी जो दूसरे पर उसके दोष बताकर आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थ क्रोध करता है, वह मनुष्य महामूर्ख है।

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अशिष्यं नास्ति यो राजान् यश्च शून्यमुपासते ।
कदर्यं भजते यश्च तमाहुर्मूढचेतसम् ।।
विदुर नीति अध्याय १-४४
राजन् जो अनधिकारीको उपदेश देता है और शून्य की उपासना करता है तथा जो कृपण का आश्रय लेता है उसे मूढचित्तवाला कहते हैं –

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उद्योगेन कृते कार्ये सिद्धिर्यस्य न विद्यते ।
दैवं तस्य प्रमाणं हि कर्तव्यं पौरुषं सदा।।
गरूड़ पुराण अध्याय १११-३३
उद्योग करने के बाद भी यदि व्यक्ति को कार्य में सफलता न मिलती हो तो उस में भाग्य ही कारण है ।तब भी मनुष्य को पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। प्रयत्न छोड़ना नहीं चाहिए, क्यों कि इस जन्म का ही पुरुषार्थ अगले जन्म का भाग्य है

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एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता ।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रं सराजकम् ।।
विदुर नीति अध्याय १-४८
किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोडा हुआ बाण सम्भव है एक को भी मारे या न मारें । किन्तु बुद्धिमान द्वारा प्रयुक्त की हुईं
बुद्धि राजा के साथ साथ सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकतीं हैं ।

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क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते ।
शान्तिखड्ग: करे यस्य किं करिष्यति दुर्जन: ।।
विदुर नीति अध्याय १-५५
इस संसार में क्षमा वशीकरणरुप है ।भला, क्षमा से क्या सिद्ध नहीं होता ? जिसके हाथ में शान्तिरुपी तलवार है, 

उसका दुष्ट पुरुष क्या कर लेंगे ? ।

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अतृणे पतितो बह्नि: स्वयमेवोपशाम्यति ।
अक्षमावान् परं दोषैरात्मानं चैव योजयेत् ।।
विदुर नीति अध्याय १-५६
तृणरहित स्थान में गिरी हुई आग अपने आप बुझ जाती है । क्षमा हीन मनुष्य अपने को तथा दुसरे को भी दोष का भागी बना लेता है ।

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आत्मायत्तं धनं यावत् तावत् विप्रे समर्पयेत् ।
पराधीनं मृते सर्वं कृपया क: प्रदास्यति ।।
गरुड़ पुराण अध्याय ३६-२९
जब तक अपना कमाया हुआ धन है,तब तक मनुष्य को ब्राह्मण को दान देना चाहिए क्योंकि मृत्यु के बाद वो सब धन दूसरे के हाथ चला जायेगा, ऐसी स्थिति में दयावान होकर कौन दान करेगा ?

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द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्ययकरिणौ ।
स्त्रिय: कामितकामिन्यो लोक: पूजितपूजक: ।।
विदुर नीति अध्याय १-६०
दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गये पुरुष की कामना करने वाली स्त्रियां तथा दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करने वाले पुरुष – ये दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलने वाले हैं

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द्वावम्भसि निवेष्टव्यौ गले बध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम् ।।
विदुर नीति अध्याय १-६५
जो धनी होने पर भी दान न दे और दरिद्र होने पर भी कष्ट सहन न कर सके इन दोनों प्रकार के मनुष्यों को गले में मजबूत पत्थर बांधकर पानी में डुबा देना चाहिए ।

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त्रयो न्याया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ ।
कनीयान्मध्यम: श्रेष्ठ: इति वेदविदो विदु: ।।
विदुर नीति अध्याय १-६७
भरतश्रेष्ठ ! मनुष्यों की कार्यसिद्धि के लिए उत्तम,मध्यम और अधम ये तीन प्रकार के न्यायानुकूल उपाय सुने जाते हैं, ऐसा वेदवेत्ता विद्वान जानते हैं ।

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अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलनम्रताम्|
अनुत्सृज्य सतां मार्गं यत्स्वल्पमपि तद् बहु||

दूसरों को कष्ट न पहुंचा कर और दुष्टों के सम्मुख बिना गिडगिडाए यदि सज्जनों के मार्ग पर हम चल सकें, तो जीवन में इतना किया कार्य भी बहुत लाभप्रद होगा

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हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम् ।
सुहृदश्च परित्यागस्त्रयो दोषा: क्षयावहा: ।।
विदुर नीति अध्याय १-७०
दूसरे के धन का हरण ,दूसरेकी स्त्री का संसर्ग तथा सुहृद् मित्र का परित्याग ये तीनो ही दोष पतन का निमित्त स्वरुप है ।

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अचोद्यमानानि यथा, पुष्पाणि फलानि च |
स्वं कालं नातिवर्तन्ते, तथा कर्म पुरा कृतम् ||
जैसे फूल और फल बिना किसी की प्रेरणा से स्वतः समय पर प्रकट हो जाते हैं और समय का अतिक्रमण नहीं करते, उसी प्रकार पहले किये कर्म भी यथासमय ही अपने फल (अच्छे या बुरे) देते हैं| अर्थात् कर्मों का फल अनिवार्य रूप से प्राप्त होता है ।

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चत्वार्याह महाराज साद्यस्कानि बृहस्पति: ।
पृच्छतेत्रिदशेन्द्राय तानीमानि निबोध मे ।।
देवतानां च संकल्पमनुभावं च धीमताम् ।
विनय कृतविद्यानां विनाशं पापकर्मणाम् ।।
विदुर नीति अध्याय १-७६,७७
महाराज! इन्द्र के पूछने पर उनसे बृहस्पति जी ने जिन चारों को तत्काल फल देने वाला बताया था, उन्हें आप मुझे से सुनिए देवताओं का संकल्प, बुद्धि मानों का प्रभाव, विद्वानों की नम्रता और पापियों का विनाश ।

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अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् |
गृहीत इव केशेषु, मृत्युना धर्ममाचरेत् ||
बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि विद्या और धन का संचय करते समय अपने को अजर तथा अमर समझे परन्तु यह सोचकर कि मृत्यु ने
मुझे सिर के बालों से पकड़ रखा है, सदा धर्म का ही आचरण करे| भावार्थ यह है कि धर्म का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए; न जाने कब मृत्यु आकर दबोच ले |

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धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥

जो धर्म का नाश करता है , उसका नाश धर्म स्वयं ही करता है और जो धर्म तथा धर्म पर चलने वालों की रक्षा करता है , धर्म भी उसकी रक्षा
अपनी प्रकृति की शक्ति से करता है । अतः धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए ।

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अजीर्णे भेषजं वारि, जीर्णे वारि बलप्रदम् |
भोजने चामृतं वारि, भोजनान्ते विषप्रदम् ||
अपच के समय पानी पीना दवाई का कार्य करता है | भोजन पचने के बाद पिया हुआ जल शक्ति देता है और भोजन के मध्य में पानी अमृत का कार्य करता है, परन्तु भोजन के अंत में जलपान विष के समान हानिकारक होता है |

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षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
विदुर नीति अध्याय १-८३
ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले पुरुषों को निद्रा , तन्द्रा ,डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता
( जल्दी हो जाने वाले कार्यों में अधिक देर लगाने की आदत) इन छ: दुर्गुणों को त्याग देना चाहिए ।

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अञ्जनस्य क्षयं दृष्ट्वा, वल्मीकस्य च सञ्चयम् |
अवन्ध्यं दिवसं कुर्यात्, दानाध्ययन-कर्मभि: ||
आंख में लगाया अंजन धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है और दीमक का घर धीरे-धीरे बढ़ जाता है; इन दृष्टान्तों से समझना चाहिए कि थोड़ा-थोड़ा भी कार्य निरंतर करने से मनुष्य को सफलता मिल जाती है| यह सोचकर मनुष्य को निरन्तर दान और स्वाध्याय करके अपना जीवन सफल बनाना चाहिए |

 

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कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम्।।
अर्थ – जब तक काम पूरे नहीं होते हैं तब तक लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं। काम पूरा होने के बाद लोग दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हैं।
ठीक उसी तरह जैसे नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रह जाता है।

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सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्याऽभ्यासेन रक्ष्यते ।
मृज्यया रक्ष्यते रुपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥
धर्म का रक्षण सत्य से, विद्या का अभ्यास से, रुप का सफाई से, और कुल का रक्षण आचरण करने से होता है ।

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उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।
अर्थ – व्यक्ति के मेहनत करने से ही उसके काम पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से उसके काम पूरे नहीं होते। जैसे सोये हुए शेर के
मुंह में हिरण स्वयं नहीं आता, उसके लिए शेर को परिश्रम करना पड़ता है

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दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन।
मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।।
अर्थ – दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी तो अर्थात् वह विद्यावान भी हो तो भी उसका परित्याग कर देगा। चाहिए
जैसे मणि से सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता?

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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
अर्थ – व्यक्ति का सबसे बड़ा दुश्मन आलस्य होता है, व्यक्ति का परिश्रम ही उसका सच्चा मित्र होता है। क्योंकि जब भी
मनुष्य परिश्रम करता है तो वह दुखी नहीं होता है और हमेशा खुश ही रहता है।

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अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।
अर्थ – अपमान करके देना, मुंह फेर कर देना, देरी से देना, कठोर वचन बोलकर देना और देने के बाद पछ्चाताप होना।
ये सभी 5 क्रियाएं दान को दूषित कर देती है।

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शीलं प्रधानं पुरूषे तद्यस्येह प्रणश्यति
न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बंधुभि:।।
(वेदव्यास)
शील मानव जीवन का अनमोल रत्न हैं। उसे जिस मनुष्य ने खो दिया तो उसका जीना ही व्यर्थ हैं वह चाहे जितना धनी
अथवा भरे पूरे घर का हो उसका कोई मूल्य नही रहता।

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आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बलं श्रियम् ।
पशून् सौख्यं धन धान्यं प्राप्नुयात् पितृ पूजनात् ।।
अर्थात पितरों को पिंडदान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि, लक्ष्मी, पशु धन, सुख, धन धान्य प्राप्त करता है।
यही नहीं पितरों की कृपा से उसे समृद्धि, सौभाग्य और मोक्ष भी मिलता है।

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अप्रक्षालितपादस्तु यो भुङ्क्ते दक्षिणामुखः।
यो वेष्टितशिरा भुङ्क्ते प्रेता भुञ्जन्ति नित्यशः ।।
स्क पु, प्र ख २१६।४१
जो पैर धोये बिना खाता है, जो दक्षिण की ओर मुंह करके भोजन करता है अथवा जो सर में वस्त्र लपेटकर भोजन करता है,
उसके अन्न को सदा प्रेत ही खाते हैं ।

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अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्यं चातिभोजनम् |
अपुण्यं लोकविद्विष्टम्, तस्मात्तत् परिवर्जयेत् ||
सीमा से अधिक खाने से स्वास्थ्य बिगड़ जाता है और आयु घट जाती है| यह कष्टदायक, पापकर्म तथा संसार से द्वेषकारी है |
अत: अधिक भोजन नहीं करना चाहिए |

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अनन्तपारा दुष्पूरा तृष्णा दुःखशतावहा ।
अधर्मबहुला चैव तस्मात्ताम् परिवर्जयेत् ।।
स्कo पुo, नाo ३२।४५
जैसे पूरे शरीर के बढ़ने के साथ साथ प्रत्येक अंग भी वृद्धि को प्राप्त होता है, उसी प्रकार तृष्णा भी धन के बढ़ने के साथ साथ बढ़ती रहती है ।
तृष्णा का कहीं अन्त नहीं है । उसे पूर्ण करना भी बहुत कठिन है, वह अपने साथ सैकड़ो दुःख लिए चलती है और उसके द्वारा प्रायः अधर्म ही होता है । अतः तृष्णा को सर्वथा त्याग देना चाहिए ।

🙏🌹राधे राधे 🌹🙏

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अन्यत्र हि कृतं पापं तीर्थमासाद्यं नश्यति ।
तीर्थेषु यत्कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।।
स्क. पु., वै. मा. मा., १७।१७
अन्य स्थानों में किया हुआ पाप तीर्थस्थानों में जाने से नष्ट हो जाता है, किन्तु तीर्थो में किया हुआ पाप, वज्रलेप(cement ) हो जाता है ।

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अन्यदीये तृणे रत्ने काञ्चने मौक्तिकेऽपि च |
मनसो विनिवृत्तिर्या, तद्स्तेयं विदुर्बुधा: ||
किसी दूसरे की किसी वस्तु से चाहे वह तिनका, रत्न, सोना या मोती भी क्यों न हो, मन को दूर रखने अर्थात्
उसकी कामना न करने को ही बुद्धिमान लोग अस्तेय (चोरी न करना) कहते हैं |

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अपूज्या यत्र पूज्यन्ते, पूज्यानामवमानना |
त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते, दुर्भिक्षं मरणं भयम् ||
जहाँ अपूज्य लोगों की पूजा होती है और पूज्यों का अपमान होता है, वहाँ अकाल, मृत्यु और डर ये तीन बुरी बातें प्रकट हो जाती हैं |

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या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
जो देवी सब प्राणियों में श्रद्धारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है॥
हे गिरिपुत्री, पृथ्वी को आनंदित करने वाली, संसार का मन मुदित रखने वाली, नंदी द्वारा नमस्कृत,पर्वतप्रवर विंध्याचल के सबसे ऊंचे शिखर पर
निवास करने वाली, विष्णु को आनंद देने वाली, इंद्रदेव द्वारा नमस्कृत, नीलकंठ महादेव की गृहिणी, विशाल कुटुंब वाली, विपुल मात्रा में निर्माण
करने वाली देवी, तुम्हारी जय हो, जय हो। हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा

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लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति॥
लोभ पाप और सभी संकटों का मूल कारण है, लोभ शत्रुता में वृद्धि करता है, अधिक लोभ करने वाला विनाश को प्राप्त होता है॥

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भद्रम् कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रम् पश्येम अक्षभिः यजत्राः स्थिरैः अङ्गैः तुष्टुवांसः तनूभिः वि-अशेम देव-हितम् यत् आयुः ।
भावार्थ: हे देववृंद, हम अपने कानों से कल्याणमय वचन सुनें । जो याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं (यजत्राः) ऐसे हे देवो, हम अपनी आंखों से मंगलमय घटित होते देखें । नीरोग इंद्रियों एवं स्वस्थ देह के माध्यम से आपकी स्तुति करते हुए (तुष्टुवांसः) हम प्रजापति ब्रह्मा द्वारा हमारे हितार्थ (देवहितं) सौ वर्ष अथवा उससे भी अधिक जो आयु नियत कर रखी है उसे प्राप्त करें (व्यशेम) । तात्पर्य है कि हमारे शरीर के सभी अंग और इंद्रियां स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहें और हम सौ या उससे अधिक लंबी आयु पावें।

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प्राणा वै प्राणिनामेते प्रोच्यन्ते भरतर्षभ ।
तस्माद् ददाति यो धेनुं प्राणानेष प्रयच्छति ।।
गावः शरण्या भूताना मिति वेदविदो विदुः ।
तस्माद् ददाति यो धेनुं शरणं सम्प्रयच्छति ।।
महाभारत, अनु० पर्व० ६६/४९-५०
गौंएं प्राणियों को दूध पिलाने के कारण प्राण कहलाती हैं । इसीलिये जो दूध देनेवाली गौ का दान देता है, वह मानों प्राणदान करता है, गौएं समस्त प्राणियों को शरण देनेवाली हैं, इसीलिये जो धेनुदान करता है, वह सबको शरण देनेवाला है।‘

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दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्।
मत्तः प्रमत्तः उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः॥
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश।
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पण्डितः॥

दस प्रकार के लोग धर्म-विषयक बातों को महत्त्वहीन समझते हैं । ये लोग हैं – नशे में धुत्त व्यक्ति, लापरवाह, पागल, थका-हारा व्यक्ति, क्रोध, भूख से पीड़ित, जल्दबाज, लालची, डरा हुआ तथा काम पीड़ित व्यक्ति । विवेकशील व्यक्तियों को ऐसे लोगों की संगति से बचना चाहिए । ये सभी विनाश की और ले जाते हैं।

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यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः ।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यति।।
जब आपका शरीर स्वस्थ है और आपके नियंत्रण में है, उसी समय आत्मसाक्षात्कार का उपाय कर लेना चाहिए! क्योंकि मृत्यु हो जाने के बाद कोई कुछ नहीं कर सकता है।

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अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥
भावार्थ: अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥

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आत्मज्ञानं समारम्भः तितिक्षा धर्मनित्यता।
यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते॥
जो अपने योग्यता से भली-भाँति परिचित हो और उसी के अनुसार कल्याणकारी कार्य करता हो, जिसमें दुःख सहने की शक्ति हो, जो विपरीत स्थिति में भी धर्म-पथ से विमुख नहीं होता, ऐसा व्यक्ति ही सच्चा ज्ञानी कहलाता है ।

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सर्वथा सुकरं मित्रं दुष्करंपरिपालनम्।
बाल्मीकि रामायण,४.३२.७.
मित्र बनाना बहुत आसान है,मित्रता निभाना कठिन है।

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लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्दस्ति किं पातकैः सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्दस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्य यदो किं गुणैः सुमहिमा यद्दस्ति किं मणगडनैःसद्विद्दा यदि किं धनैरपयशो यद्दस्ति किं मृत्युना।।
नीतिशतक५१.
यदि लालच है तो अवगुण से क्या,चुगलखोरी यदि है तो पापों से क्या,सच्चाई यदि है तो तप से क्या,शुद्ध मन यदि है तो तीर्थ( तीर्थाटन) से क्या,सज्जनता यदि है तो गुणो से क्या,यदि सुयश है तो सजावट से क्या,उत्तम विद्दा यदि है तो धन से क्या,अपयश यदि है तो मृय्यु से क्या?

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क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
भावार्थ:- क्रोध से मनुष्य की बुद्धि मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है, कुंद हो जाती है। इससे स्मृति भ्रमित हो जाती है।
स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।

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शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा।
उहापोहोर्थ विज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणा:॥
श्रवण करने की इच्छा, प्रत्यक्ष में श्रवण करना, ग्रहण करना, स्मरण में रखना, तर्क वितर्क, सिद्धान्त निश्चय,

अर्थज्ञान तथा तत्वज्ञान ये बुद्धी के आठ अंग है।

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धनधान्यप्रयोगेषु तथा विद्यागमेषु च ।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सदा भवेत्।।

चाणक्यशतक,३५.
धन-धान्य के लेन-देन मे,विद्या लाभ मे(पढने लिखने के मामले मे,)खाने पीने मे तथा व्यवहार (काम काज) मे कभी भी शर्म नही करनी वाहिये।

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दुर्जनेन समं वैरं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
उष्णो दहति चाङ्गारश्शीतः कृष्णायते करम्।।
दुर्जन के साथ बैर न करें और न ही प्रीति।अंगारा यदि गर्म हो तो हाथ जलाता है और यदि ठण्डा हो तो हाथ काला करता है।

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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
व्यक्ति का सबसे बड़ा दुश्मन आलस्य होता है। व्यक्ति का परिश्रम ही उसका सच्चा मित्र होता है।
क्योंकि जब भी मनुष्य परिश्रम करता है तो वह दुखी नहीं होता है और हमेशा खुश ही रहता है।

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अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहुभाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढ़चेता नराधमः॥
मनुष्यों में सबसे अधम अर्थात नीच पुरुष वही है, जो बिना बुलाए किसी के यहाँ जाता है और बिना पूछे अधिक बोलता है साथ ही जिसपर विश्वास न किया जाये उसपर भी विश्वास करता है, उसे ही मूढ़, चेता, तथा अधम पुरुष कहा गया है ।

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महादेवं महात्मानं महाध्यानपरायणम् महापापहरं देवं मकाराय नमो नम:।
शिवं शान्तं जगन्नाथ लोकानुग्रहकारकम् शिवमेकपदं नित्यं शिकाराय नमो नम:।।
भावार्थ:- जो उदार स्वभाव वाले महान् आत्मा तथा जो बडे़ से बडे़ पाप को नष्ट करने वाले महान् ध्यानपरायण-अखण्ड समाधि में स्थित रहने वाले महादेव शिव हैं, ऐसे ‘ॐ’ कार स्वरूप महादेव शिव को, नमस्कार है, नमस्कार है। जो समस्त लोकों पर अनुग्रह करने वाले एकमात्र शिवस्वरूप कल्याणकारी, शान्तस्वरूप, जगत् के स्वामी हैं, ऐसे भगवान् शिव को नित्य, नमस्कार है।।

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न जायते म्रियते वा विपश्चि-न्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित।
अजो नित्य: शाश्वतो$यं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य न मेधया न बहना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँस्वाम।
न जायते म्रियते व कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:। अजो नित्य: शाश्वतो$यं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
यह आत्मा किसी भी काल मे न तो जन्मता है (उत्पन्न होता है ) और न ही किसी काल मे मरता है (नष्ट होता है वस्तुता आत्मा एक चैतन्य ऊर्जा है जिसे न तो पैदा किया जा सकता है और न ही इसे नष्ट किया जा सकता है विज्ञान के अनुसार भी ऊर्जा अक्षय होती है यह कभी नष्ट नही होती है केवल इसका रूपांतर हो सकता है जैसे पंखा बल्ब हीटर ये सब बिजली से चलते पर रूप अलग अलग है)यह आत्मा अजन्मा है, नित्य है, सनातन है और पुरातन है शरीर के मारे जाने पर भी यह मारा नही ज सकता है यह आत्मा वेदों और शास्त्रों के अध्यन से या श्रावण से प्राप्त होने योग्य नही है जब साधना करने वाला साधक जिसमे वह आत्मा निहित है जब उसी में समाहित चित्त होकर और उसी में लीन होकर उसका वरण करता है तभी यह आत्मा साधक को प्राप्त हो उसके अंतःकरण में अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है अर्थात तभी साधक को आत्मज्ञान रूपी (आत्मा ही परमात्मा है ) परमात्म तत्त्व या ब्रह्म की प्राप्ति होती है

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विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्ये कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥
भावार्थ – विद्वता और राज्य अतुलनीय हैं, राजा को तो अपने राज्य में ही सम्मान मिलता है, पर अपने ज्ञान के माध्यम से जन कल्याण की भावना रखने वाले विद्वान का सर्वत्र सम्मान होता है।

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कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।
सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में मन की

आसक्ति न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?

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किंचिदाश्रयसंयोगाध्दत्ते शोभागसाध्वपि ।
कान्ता विलोचने न्यस्तं मलीमसमिवाञ्जनम् ||
अर्थ काजल मलिन [काला] होता है, परन्तु सुंदर स्त्री की आँखों में लगाने से उसकी शोभा बढती है, उसी प्रकार खराब वस्तु भी श्रेष्ट वस्तु का आश्रय लेता है, तो उत्तम शोभा धारण करता है

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यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम्।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्॥

कोई वस्तु चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो,उसका मिलना कितना ही कठिन क्यों न हो,और वह पहुचं से बहार क्यों न हो,कठिन तपस्या अर्थात परिश्रम से उसे भी प्राप्त किया जा सकता है। परिश्रम सबसे शक्तिशाली गुण है |

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गुरवो बहवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः|
दुर्लभः स गुरुर्लोके शिष्यचिन्तापहारकः||

इस संसार मे अपने शिष्यों का धन लूटने वाले गुरु बहुत अधिक संख्या में होते हैं , परन्तु ऐसे गुरु दुर्लभ होते हैं जो अपने शिष्यों की शङ्काओं तथा चिन्ताओं को दूर करते है |

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तावत्सर्वोत्तमो जन्तुस्तावत्सर्वगुणालयः।
नमस्यः सर्वलोकानां यावन्नार्थयते परम्।।

जीव तभी तक सबसे उत्तम, समस्त गुणों का भंडार और सब लोगों का वंदनीय रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता |

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सद्वंशजत्वं साद्गुण्यं शूरहस्तगतापि च |
पुरुषस्य च चापत्वं नम्रत्वादेव लक्ष्यते ||

एक प्रतिष्ठित कुल में उत्पन्न हुआ गुणवान पुरुष तथा अच्छी गुणवत्ता वाले लचीले बांस से बना हुआ धनुष चाहे वह एक कुशल और बहादुर सैनिक के हाथ में ही क्यों न हों अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकते हैं जब तक कि वे झुकते नही हैं |

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कोकिलानां स्वरो रूपं लज्जा रूपं कुलस्त्रियः। 

विद्यायाः पटुता रूपं रू मूर्खस्य मौनता।।चाणक्यराजनीतिशास्त्र,७.२३.

कोयलों(कोयल) का रूप स्वर है ,कुलांगना का रूप लाज है,विद्या का रूप पटुता है,मूर्ख का रूप मौन है।

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धनधान्यप्रयोगेषु तथा विद्यागमेषु च ।

आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सदा भवेत्।। चाणक्यशतक,३५.

धन-धान्य के लेन-देन मे,विद्या लाभ मे(पढने लिखने के मामले मे,) खाने पीने मे तथा

व्यवहार (काम काज) मे कभी भी शर्म नही करनी वाहिये।

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सुशीलो मातृपुण्येन, पितृपुण्येन चातुरः ।

औदार्यं वंशपुण्येन, आत्मपुण्येन भाग्यवान ।।

 भावार्थ – कोई भी मनुष्य अपनी माता के पुण्य से सुशील होता है, पिता के पुण्य से चतुर होता है, वंश के पुण्य से उदार होता है

और अपने स्वयं के पुण्य होते हैं तभी वह भाग्यवान होता है। अतः सौभाग्य प्राप्ति के लिए सत्कर्म करते रहना आवश्यक है।

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एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।

विद्यैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ।।

                              विदुरनीति, १/५७

एक मात्र धर्म ही परम कल्याणकारी हैै, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है, एकमात्र विद्या ही

परम सन्तोष देने वाली है तथा एकमात्र अहिंसा ही सुख देनेवाली है ।

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दानं होमं दैवतं मङ्गलानि प्रायश्चित्तान् विविधान् लोकवादान्।

एतानि यः कुरुत नैत्यकानि तस्योत्थानं देवता राधयन्ति॥

 भावार्थ : जो व्यक्ति दान, यज्ञ, देव -स्तुति, मांगलिक कर्म, प्रायश्चित तथा अन्य सांसरिक कार्यों को यथाशक्ति

नियमपूर्वक करता है ,देवी-देवता स्वयं उसकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।

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नाम संकीर्तनं यस्य सर्व पापप्रणाशनम्।

प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हर्रि परम्।।

अंत में जिनका नाम-संकीर्तन सभी पापों का नाश करता है, और जिनको किये गये प्रणाम सभी दुःखों को शांत करते हैं

उन परमात्मा को, श्री हरि को प्रणाम करते हैं, बार-बार वंदन करते हैं, कलयुग में कृष्ण भक्ति एक ऐसी औषधि है,

जो हर तरह की व्याधि को समाप्त कर मुक्ति प्रदान करती है!

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अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलनम्रताम्|

अनुत्सृज्य सतां मार्गं यत्स्वल्पमपि तद् बहु||

दूसरों को कष्ट न पहुंचा कर और दुष्टों के सम्मुख बिना गिडगिडाए यदि सज्जनों के मार्ग पर हम चल सकें,

तो जीवन में इतना किया कार्य भी बहुत लाभप्रद होगा

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सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।

वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।

अचानक (आवेश में आकर बिना सोचे-समझे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए, कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है। (इसके विपरीत) जो व्यक्ति सोच-समझकर कार्य करता है, गुणों से आकृष्ट होनेवाली माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।

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जानन्ति पशवो गन्धाद्वेदाज्जानन्ति पण्डिताः ।

चाराज्जान्ति राजानश्चक्षुर्भ्यामितरे जनाः ॥

पशु गन्ध से उचित-अनुचित का ज्ञान कर लेते हैं। बुद्धिमान् लोग वेद-शास्त्रों को पढ़कर अपने कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान कर लेते हैं।

राजा अपने सेवकों या गुप्तचरों के द्वारा अपने राज्य के कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में जानता है। और सामान्य लोग

अपने नेत्रों से उचित-अनुचित का ज्ञान करते हैं ।।

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पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं, गुरुं ब्राह्मणमेव चl

नैव गां न कुमारीं च, न वृद्धं न शिशुं तथाll

गुरुदेव , ब्राह्मण देवता, गाय माता ,कुमारी कन्या, वृद्ध , माता ,पिता, तथा अबोध बालक – इन सवको कभी पैर से स्पर्श नहीं करना चाहिए। इन्हें पैर से छूने का अर्थ इनका अपमान करना है जिससे घोर पाप लगता है यही हमारे सनातन धर्म की मर्यादा है

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न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥

जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त

पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।।

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लये संबोधयेत् चित्तं विक्षिप्तं शमयेत् पुनः।

सकशायं विजानीयात् समप्राप्तं न चालयेत् ॥

 जब चित्त निष्क्रिय हो जाये, तो उसे संबद्ध करो। संबुद्ध चित्त जब अशान्त हो,उसे स्थिर करो। चित्त पर जमे

मैल (अहंकार तथा अज्ञानता) को पहचानो।समवृत्ति को प्राप्त होने पर इसे फिर विचलित मत करो।

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सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न पश्यति।

सन्तुष्टश्चरतो नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्॥

विद्वान व्यक्ति को चाहिए की वे गधे से तीन गुण सीखें। जिस प्रकार अत्यधिक थका होने पर भी वह बोझ ढोता रहता है,

उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी आलस्य न करके अपने लक्ष्य की प्राप्ति और सिद्धि के लिए सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए।

कार्य सिद्धि में ऋतुओं के सर्द और गर्म होने का भी चिंता नहीं करना चाहिए और जिस प्रकार गधा संतुष्ट होकर जहां – तहां चर लेता है,

उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी सदा सन्तोष रखकर कर्म में प्रवृत रहना चाहिए।

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सत्येन धार्यते लोकः स्वर्गं सत्येन गच्छति।

अनृतं तमसो रूपं तमसा नीयते ह्यधः॥

भावार्थ- सत्य से ही लोक धारण किया हुआ है ,सत्य से जीवन के समस्त काम्य स्वर्ग आदि सुख प्राप्त होते हैं,

असत्य अंधकार का रूप है तथा अंधकार से अर्थात् असत्य से अधोगति होती है ।।

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न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥

जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त

पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।।

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साधु दर्शनमार्याणां सन्निवासः सदा सुखम् ।

अदर्शनेन बालानां नित्यमेव सुखी स्यात् ।।

श्रेष्ठ पुरूषों का दर्शन श्रेयस्कर है । सन्तों के साथ रहना सदैव सुखदायी है ।

मूर्खों के दर्शन से बचते हुए सदा सुखी रहना चाहिये ।

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अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धि परदाराभिमर्शम्।

दम्भं स्तैन्य पैशुन्यं मद्यपानं न सेवते यश्च सुखी सदैव॥

भावार्थ : जो व्यक्ति अकारण घर के बाहर नहीं रहता ,बुरे लोगों की सोहबत से बचता है ,परस्त्री से संबध नहीं रखता;

चोरी ,चुगली ,पाखंड और नशा नहीं करता -वह सदा सुखी रहता है।

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विकृतिं नैव गच्छन्ति संगदोषेण साधवः।

आवेष्टितं महासर्पैश्चनदनं न विषायते॥

जिस प्रकार से चन्द के वृक्ष से विषधर के लिपटे रहने पर भी वह विषैला नहीं होता उसी प्रकार से

संगदोष (कुसंगति) होने पर भी साधुजनों के गुणों में विकृति नहीं आती।

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यस्यास्ति वित्तं स वरः कुलिनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः ।

स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ॥

धनवान व्यक्ति का महत्व सर्वत्र है । उसके सारे अवगुण ढक जाते हैं ।  धनवान व्यक्ति को सवसे श्रेष्ठ, सवसे कुलीन कहा जाता है ।

वह पण्डित, पढालिखा तथा गुणवान् भी है । वह एक सुवक्ता और सुदर्शन भी है । सारे गुण काञ्चन (धन) को ही आश्रय करते हैं ।

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करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।

वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि।।

जिन्होंने अपने करकमल से चरणकमल को पकड़ कर उसके अंगूठे को अपने मुखकमल में डाल रखा है और

जो वटवृक्ष के एक पर्णपुट (पत्ते के दोने) पर शयन कर रहे हैं, ऐसे बाल मुकुन्द का मैं मन से स्मरण करता हूँ ।

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ज्येष्ठत्वं जन्मना नैव गुणैर्ज्येष्ठत्वमुच्यते।

गुणात् गुरुत्वमायाति दुग्धं दधि घृतं कृमात् ॥

किसी भी मनुष्य को महत्ता जन्म से नहीं अपितु अपने गुणों से मिलती है। जिस प्रकार दूध से दही और फिर घी बनता है। और घी की महत्ता दूध और दही दोनों से कहीं अधिक है, दूध पहले उत्पन्न होने के बाद भी दही की अपेक्षा और दही घी की अपेक्षा कम गुण वाला होता है।

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न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।

अतः  श्वः   करणीयानि कुर्यादद्यैव   बुद्धिमान्  ॥

कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है ॥

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आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराःप्राणाः शरीरं गृहं पूजा ते विषयोपभोग-रचना निद्रा समाधि-स्थितिः।

सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलंशम्भो तवाराधनम्॥

हे शम्भो, मेरी आत्मा तुम हो, बुद्धि पार्वती जी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, सम्पूर्ण विषयभोग की रचना आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं। इस प्रकार मैं जो-जो कार्य करता हूँ,

वह सब आपकी आराधना ही है।

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आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सद्भिर्मनुष्यैस्सह संप्रयोगः।

स्वप्रत्यया वृत्तिरभीतवासः षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन्॥

स्वस्थ रहना, उऋण रहना, परदेश में न रहना, सज्जनों के साथ मेल-जोल, स्वव्यवसाय द्वारा आजीविका चलाना तथा

भयमुक्त जीवनयापन ये छह बातें सांसारिक सुख प्रदान करती हैं।

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हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम् ।

कर्णस्य भूषणं शास्त्रं भूषणै: किं प्रयोजनम् ॥

अर्थ:- हाथ का आभूषण दान करना है, कण्ठ का आभूषण सच्चाई है,

कान का आभूषण शास्त्र सुनना है तो (बाह्य)  आभूषणों का क्या प्रयोजन ।

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माघे मासे महादेव: योदास्यति घृतकम्बलम।

स भुक्त्वा सकलानभोगान अन्तेमोक्षं प्राप्यति॥

आपको  मकर संक्रान्ति  पर्व की हार्दिक मंगलकामनाऐं । सूर्य देव के उत्तरायण होने पर भारतवर्ष के उजाले में

वृद्धि के प्रतीक पर्व “मकर संक्रान्ति” पर आप सब के जीवन भी प्रकाशमान हों,

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विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च।

व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च।।

भावार्थ – यात्रा में ज्ञान सच्चा मित्र,  घर में पत्नी सच्ची मित्र, रोग में औषधी तथा मृत्यु के समय धर्म मनुष्य का  सबसे बड़ा मित्र होता है।

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प्रवृत्तवाक् विचित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्।

आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते॥

भावार्थ:जो व्यक्ति बोलने की कला में निपुण हो, जिसकी वाणी लोगों को आकर्षित करे, जो किसी भी

ग्रंथ की मूल बातों को शीघ्र ग्रहण करके बता सकता हो, जो तर्क-वितर्क में निपुण हो, वही ज्ञानी है।

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श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाहणे चापराहिणकम्।

मृत्युर्नहि प्रतीक्षेत कृतं वास्य न वा कृतम्।।

                                                                  प्रबन्धचिन्तामणि पृ०४६.

जो कल करना था सो आज कर,जो दोपहर बाद  करना था उसे दोपहर से पहले कर। मौत इन्तजार  नही करती

कि इसका काम पूरा हुआ या नहीं।

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कुतौ निद्रा दरिद्रस्य परपेष्यकरस्य च।

परनारीप्रसक्तस्य परद्रव्यहरस्य च।।

दरिद्र,दूसरों के नौकर,परस्त्री मे आसक्त तथा दूसरों के धन का हरण करने वाले को नींद कहां?

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दुर्जनेन समं वैरं प्रीतिं चापि न कारयेत्।

उष्णो दहति चाङ्गारश्शीतः कृष्णायते करम्।।

दुर्जन के साथ बैर न करें और न ही प्रीति।अंगारा यदि गर्म हो तो हाथ जलाता है और यदि ठण्डा हो तो हाथ काला करता है।

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न जायते म्रियते वा विपश्चि-न्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित।

अजो नित्य: शाश्वतो$यं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य न मेधया न बहना श्रुतेन।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँस्वाम।
न जायते म्रियते व कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

अजो नित्य: शाश्वतो$यं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

यह आत्मा किसी भी काल मे न तो जन्मता है (उत्पन्न होता है ) और न ही किसी काल मे मरता है (नष्ट होता है वस्तुता आत्मा एक चैतन्य ऊर्जा है जिसे न तो पैदा किया जा सकता है और न ही इसे नष्ट किया जा सकता  है विज्ञान के अनुसार भी ऊर्जा अक्षय होती है यह कभी नष्ट नही होती है केवल इसका रूपांतर हो सकता है जैसे पंखा बल्ब हीटर ये सब बिजली से चलते पर रूप अलग अलग है)यह आत्मा अजन्मा है, नित्य है, सनातन है और पुरातन है शरीर के मारे जाने पर भी यह मारा नही ज सकता है  यह आत्मा वेदों और शास्त्रों के अध्यन से या श्रावण से प्राप्त होने योग्य नही है जब साधना करने वाला साधक जिसमे वह आत्मा निहित है जब उसी में समाहित चित्त होकर और उसी में लीन होकर उसका वरण करता है तभी यह आत्मा साधक को प्राप्त हो उसके अंतःकरण में अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है अर्थात तभी  साधक को आत्मज्ञान रूपी (आत्मा ही परमात्मा है ) परमात्म तत्त्व या ब्रह्म की प्राप्ति होती है

🙏🌹राधे राधे 🌹🙏

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