आज की ट्रेन यात्रा – एक अनुभव
आज की ट्रेन यात्रा – एक अनुभव
हर दिन की तरह, आज भी मैं सुबह की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पहुंचा। ट्रेन के डिब्बे में चढ़ते ही माहौल वैसा ही था जैसा रोज़ होता है—हल्का-फुल्का मज़ाक, बातचीत और गपशप का सिलसिला। गुप्ता जी, जो हमेशा अपने मज़ेदार किस्सों और चुटकुलों से माहौल हल्का कर देते हैं, आज भी चर्चा का केंद्र थे। साथी यात्री उन्हें छेड़ने में व्यस्त थे, और पूरा डिब्बा ठहाकों से गूंज रहा था।
लेकिन आज का सफर थोड़ा अलग होने वाला था, क्योंकि ट्रेन देरी से चल रही थी। आमतौर पर, हम सभी समय पर अपने गंतव्य पर पहुंच जाते थे, लेकिन आज ट्रेन की लेट लतीफी ने सबको थोड़ा परेशान कर दिया। ठाकुर साहब, जो बेहद अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे, ट्रेन की देरी को देखते हुए परेशान हो गए और उन्होंने तय किया कि आज उन्हें ऑफिस में दो घंटे की शॉर्ट लीव लेनी होगी। यह चर्चा पूरे डिब्बे में चलने लगी कि कैसे आज का दिन थोड़ा असामान्य है।
ऑटोवाले की संघर्ष भरी कहानी
ट्रेन की देरी के कारण मैं भी थोड़ा चिंतित था। जैसे ही स्टेशन पहुंचा, मैंने जल्दबाज़ी में एक ऑटो पकड़ी ताकि समय पर अपने काम पर पहुंच सकूं। ऑटो तेज़ी से आगे बढ़ रही थी, लेकिन बस छूटने का डर मन में बना हुआ था। शाम को लौटते समय भी मैंने पहले एक ऑटो ली और फिर गोवर्धन चौराहे पर दूसरी ऑटो में सवार हुआ।
इस बार जो ऑटो मैंने पकड़ी, उसका चालक एक विकलांग व्यक्ति था। उसके चेहरे पर आत्मविश्वास और सच्चाई झलक रही थी। मैंने सहजता से उससे बातचीत शुरू की, और धीरे-धीरे उसकी कहानी मेरे सामने खुलने लगी। उसने बताया कि वह जाट समुदाय से है और जब उसने ऑटो चलाने का फैसला किया, तो उसके अपने ही लोगों ने उसे ताने दिए।
“लोग कहते थे, विकलांग होकर ऑटो चलाओगे? क्या कर लोगे?” उसने एक हल्की हंसी के साथ कहा। “लेकिन मैंने सोचा कि मेहनत करने में क्या बुराई है? मैं अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहा हूँ, किसी से भीख तो नहीं मांग रहा।”
उसकी बातें मुझे छू गईं। उसका आत्मसम्मान और मेहनत करने का जज़्बा देखकर मुझे बहुत प्रेरणा मिली। मैंने उसकी सकारात्मक सोच की तारीफ़ की, जिस पर वह मुस्कुराया और बोला, “भाई साहब, बस ज़िंदगी को खुलकर जीना चाहिए। हालात चाहे कैसे भी हों, मेहनत करने वालों को कोई नहीं रोक सकता।”
हमारी बातचीत इतनी रोचक थी कि सफर का एहसास ही नहीं हुआ। जब मैं अपने गंतव्य पर पहुंचा, तो उससे विदा लेते हुए मैंने उसकी हिम्मत को सलाम किया। उसने भी गर्मजोशी से विदा ली और आगे बढ़ गया।
ट्रेन में एक अजीब घटना
इसके बाद मैं फिर से ट्रेन में चढ़ा। रोज़ की तरह माहौल सामान्य था, लेकिन फिर एक घटना ने सबका ध्यान आकर्षित कर लिया। एक यात्री ऊपर की सीट पर चढ़कर बैठ गया। नीचे बैठे यात्रियों ने उससे कहा, “भाई साहब, जूते उतार दो।”
वह थोड़ा झिझका और बोला, “नहीं, मेरे पैर गंदे हैं।”
लोगों ने फिर अनुरोध किया, लेकिन उसने मना कर दिया। आखिरकार, जब दबाव बढ़ा, तो उसने जूते उतार दिए—और तभी एक अजीब सी दुर्गंध फैल गई। पूरे डिब्बे में हड़कंप मच गया। लोग इधर-उधर देखने लगे, अपनी नाकें ढक लीं और खिड़कियां खोलने लगे। किसी ने मज़ाक में कहा, “भाई साहब, अब समझ आया कि आप जूते क्यों नहीं उतारना चाहते थे!”
वह व्यक्ति झेंप गया और धीरे-धीरे अपने पैर समेटकर बैठ गया। कुछ लोगों ने उसे समझाया कि सफर में स्वच्छता बनाए रखना ज़रूरी है, खासकर जब हम सार्वजनिक परिवहन में होते हैं। इस पूरी घटना ने माहौल को थोड़ा असहज कर दिया, लेकिन जल्द ही बातचीत का विषय बदल गया और ट्रेन अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगी।
सफर से मिली सीख
आज की ट्रेन यात्रा ने मुझे कई बातें सिखाईं। एक तरफ़, विकलांग ऑटो चालक की संघर्ष भरी कहानी थी, जिसने यह साबित कर दिया कि मेहनत करने वालों के लिए कोई भी बाधा बड़ी नहीं होती। दूसरी तरफ़, ट्रेन में हुई घटना ने यह याद दिलाया कि स्वच्छता और दूसरों का ध्यान रखना भी यात्रा का एक अहम हिस्सा है।
हर रोज़ की तरह, आज भी ट्रेन मुझे अपने गंतव्य तक ले आई, लेकिन इस बार सफर ने मुझे कई नए अनुभवों और सीखों से समृद्ध कर दिया। शायद यही यात्रा का असली सौंदर्य है—हर सफर एक नई कहानी कहता है!